मुझे क्यों चुलबुली सी लगती हैं
मुझे क्यों गुदगुदी सी लगती हैं
आप संग मेरा कोई रिश्ता नहीं है
पर मन मेरा भी सिजता वहीं है
कामनाओं की हदबंदी सी लगती है
मुझे क्यों गुदगुदी सी लगती है
आप मर्यादित सागर की लहरें हैं
समाज, रिश्तों के लगे पहरे हैं
सहज पर छटपटाती सी लगती हैं
मुझे क्यों गुदगुदी सी लगती है
एक यात्रा है और एक जीवन है
हो तुरपाई पर लगे न सीवन है
सांसे दूर से बुदबुदाई सी कहती हैं
मुझे क्यों गुदगुदी सी लगती हैं
आप साफ न बोलतीं, लजजा है
मुझे मालूम संस्कार भी, छज्जा है
अपनी दीवारों में लरजती सी लगती हैं
मुझे क्यों गुदगुदी सी लगती है।
धीरेन्द्र सिंह
23.12.2025
06.44Z

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