ज़िंदगी हर हाल में बहकने लगी
कठिन दौर हंस कर सहने लगी
मासिक किश्तों में दबी हुई मगर
कभी चमकने तो खनकने लगी
बाजारवाद में हर दर्द की दवा हाज़िर
बहाववाद ले तिनके सा बहने लगी
क्रेडिट कार्ड करे पूरी तमन्नाएं अब
ज़िंदगी हंसने लगी तो सजने लगी
सूर्य सा प्रखर रोब-दाब-आब सा
चांदनी भी संग अब थिरकने लगी
लोन से लिपट आह, वाह बने
कभी संभलने तो बहकने लगी
तनाव, त्रासदी से ऊंची हुई तृष्णा
दिखावे में ढल ज़िंदगी बिकने लगी
रबड़ सा खिंच रहा इंसान अब
ज़िंदगी दहकने तो तड़पने लगी.
भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.
आज के बाज़एवाद की सही छवि ...सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवह ! शानदार
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 28 -12 -2010
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
बेहतरीन अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंस्थिति परिस्थिति को सहजता से अभिव्यक्ति मिली है!
जवाब देंहटाएंमासिक किश्तों में दबी कभी चमकने तो कभी खनकने लगी ...
जवाब देंहटाएंबाजारवाद और बहाववाद का अच्छा प्रयोग !