मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

नग्नता

 वस्त्र की दगाबाजी

कहां से सीखा मानव

कब कहा प्रकृति ने

ढंक लो तन कपड़ों से,

सामाजिकता और सभ्यता का दर्जी

सिले जा रहा कपड़े

मानवता उतनी ही गति से

होती जा रही नग्न,

क्या मिला 

ढंककर तन,


धरती, व्योम पहाड़, जंगल

जल, अग्नि, वायु सब हैं नग्न,

जंगल में कैसे रह लेते हैं

पशु, पक्षी वस्त्रहीन

नहीं बहती जंगल में

कामुकता और अश्लीलता की बयार,

क्या मनुष्य ने

चयन कर वस्त्र

किया निर्मित हथियार ?


नग्न जीना नहीं है

असभ्यता या कामुकता

बल्कि यह 

स्वयं का परिचय,

स्वयं पर विश्वास,

शौर्य की सांस, 

शालीनता का उजास है,

नग्न कर देना

आज भी सशक्त हथियार है

मानवता

वस्त्र में गिरफ्तार है।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2025

16.49



सोमवार, 31 मार्च 2025

छल

 जो बीत गया वह सींच गया चिंतन कैसा

जो होगा वह भविष्य सोच अकिंचन कैसा

वर्तमान को ना लिखना है असाहित्यिक

आज का लेखन ना हो तो मंथन कैसा


मन के संदूक से निकली फैली वह चादर

सलवट कई सुगंध वही एहसास भी वैसा

मन को टांग बदन को हो कैसा अभिमान

प्रकृति दिखती वैसी मनोभाव हो जैसा


बोर कर देती है तुम्हारी विगत रचनाएं

प्यास एक अनबुझी चाह में हो समझौता

वर्तमान को छुपा विगत का गुणगान हो

वर्तमान से छल को कौन दे रहा न्यौता।


धीरेन्द्र सिंह

31.03.2025

23.01



रविवार, 30 मार्च 2025

वह

 सत्य सम्पूर्ण अपना जब जतलाया रूठ गईं

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गईं


मुझे ना पसंद कुछ छिपाना कुछ जताना

पारदर्शी ही होता है जिसे कहते हैं दीवाना

यह पारंपरिक प्रथा है नहीं है बात कोई नई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई


प्यार पर गौर करें तो उसका कोई तौर नही 

यार को भ्रम में रखें यह शराफत दौर नहीं

प्यार आध्यात्म का रूप है भक्ति रूप कई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई


पारदर्शिता ही प्यार का है सर्वप्रमुख रीत

प्यार तुमसे किया तुम में ही लिपटा गीत

मेरी बातों पर तुम्हारा “उफ्फ़” प्रतीक कई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई


कहा गया है नारी को समझना आसान नहीं

कल मेरी रचना को लाइक कर चली कहीं

इतने से अलमस्त हृदय निकसित भाव कई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई।


धीरेन्द्र सिंह

30.03.2025

20.43



शनिवार, 29 मार्च 2025

हिन्दू नववर्ष

 हिन्दू विक्रम संवत 2082 नववर्ष

चैत्र महीने का शुक्ल पक्ष प्रतिपदा

विक्रम संवत साल है सूर्य आधारित

वराह मेहर खगोल शास्त्री ने रचा


चक्रवर्ती विक्रमादित्य का राज तिलक

विक्रम संवत आरम्भ तिथि है नधा

कहीं न इसकी चर्चा बना अनजान

लें निर्णय इसका प्रयोग रहे सदा


सूर्य आधारित है हिन्दू वर्ष कलेंडर

चंद्र आधारित ही प्रयोग से बंधा

आरम्भ हो प्रयोग हिन्दू कलेंडर का

प्रयोग से ही विस्तार गति बदा।


धीरेन्द्र सिंह

29.03.2025

19.22



शुक्रवार, 28 मार्च 2025

भक्ति

 यही मेरी पूजा और धूप अगरबत्ती

आत्मा को छूँ सकूं निर्मित हो हस्ती

तुम में ही है देवत्व शून्य बोल रहा है

इंसान ही भगवान है सच ना मस्ती


हाड़-मांस ही नहीं प्राणी में झंकार है

जिंदगी गहन अनुभूति प्राणी में रचती

नयन, स्पर्श, भाव में ही जीव निभाव

कुछ इसी झुकाव में पूजा वेदी सजती


अब तक कभी न मांगा मंदिर से कुछ

मंदिर में जीव दीप्ति क्या न रचती

मूर्ति ऊर्जा को कर प्रणाम, जीव देखता

बंद नयन जुड़े हाँथ, भावना की शक्ति


ईश्वर मुझे मिलते मिल जाती देवियां

मेरी अर्चना है भौतिक आधार ना विरक्ति

जब भी खिला निमित्त रहा है कोई प्राणी

प्राणी में ईश्वर इसलिए प्राणी में अनुरक्ति।


धीरेन्द्र सिंह

29.03.2025

04.45

बुधवार, 26 मार्च 2025

लूट लिए

 कभी आंगन में बिछाकर सपने

मुझको लूट लिए मेरे ही अपने


बहुत चाह सी थी उनपर निर्भर

मेरे साथ हैं तो स्वर्णिम है घर

बड़े विश्वास से टूट गया अंगने

मुझको लूट लिए मेरे ही सपने


उमंग, तरंग, विहंग सी भावनाएं

आदर्श, सिद्धांत, समाज कामनाएं

चक्रव्यूह रच ढहा दिया भय ने

मुझको लूट लिए मेरे ही अपने


कहां थी कल्पनाएं कहां अब बताएं

किसी से क्या बोलें, क्षद्म हैं सजाए

व्यक्ति सत्य या भ्रम, यही है सबमें

मुझको लूट लिए मेरे ही अपने।


धीरेन्द्र सिंह

27.03.2025

09.01

सीखचों

 सीखचों से मैं घिरा आप क्या आजाद हैं

खींच तो हैं सब रहें पर मुआ जज्बात है


पल्लवन की आस में झूमती हैं डालियां

कलियां रहीं टूट अर्चना की तो बात है


व्यक्ति पंख फड़फड़ाता पिंजरे के भीतर

कौन कहता हर संग नभ का नात है


मनचाहा सींखचे कुछ दिन लुभाती रहें

बंधनों के दर्द में जपनाम ही नाथ है


जो बचता सींखचों से दीवाना कहलाता

जिंदगी की क्या कहें बंदगी हालात हैं।


धीरेन्द्र सिंह

27.03.2025

08.26