व्यक्ति जितना जीवन में संभल पाएंगे
स्वयं को और अभिव्यक्त कर पाएंगे
व्यक्ति निर्भर है किसी व्यक्ति पर ही
अकेला सोच कर व्यक्ति डर जाएंगे
हाँथ में हाँथ या कंधे पर थमा विश्वास
जुड़कर जीवनी जुगत कई कर जाएंगे
भीड़ में व्यक्ति अपनों को ही ढूंढता है
अपरिचित भीड़ भी तो व्यक्ति, कुम्हलायेंगे
निर्भरता स्वाभाविक है जीवन डगर में
मगर क्या आजन्म निर्भर रह पाएंगे
व्यक्ति आकर्षण है आत्मचेतनाओं का
वर्जनाओं में संभावनाएं तो सजाएंगे
मन है भागता कुछ अनजान की ओर
सामाजित बंधनों को कैसे तोड़ पाएंगे
तृप्त की तृष्णा में तैरती अतृप्तियां हैं
व्यक्ति भी व्यक्ति संग कितना संवर पाएंगे।
धीरेन्द्र सिंह
04.12.2025
06.51
गोवा
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