शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

यकीन

किसी यकीन पर झिलमिलाती चाहत की बूंदे

एक दौर अपनी जिंदगी का सप्तरंगी सजाएं

किसी यथार्थ भूमि की परत खुरदरी यूँ बोले

एकल धमक की ललक को यूँ कैसे समझाएं


वह हिमखंड सा छोटा सिरा दुनिया को दिखलाए

वह ऐसी तो नहीं क्या पता कितने समझ पाए

पताका फहराने भर से विजय का क्यों निनाद

बात है कि सब संग जुड़ अपनों सा झिलमिलाएं


तुम एक द्वीप हो एक देश हो मनभावनी दुनिया

किनारे लोग आमादा क्या पता कौन पहुंच पाए

जो दूर है बदस्तूर है बस नूर है सुरूर अलहदा

यकीन क्यों न हो मोहब्बत उन्हें सोच खिलखिलाए।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2025

22.10



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