सांध्य बेला हो चुकी प्रकाश में बदले बेरस
पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस
अत्यावश्क हुई खरीद भक्ति भाव अविरल
कथ्यों पर युग बढ़ चला होता भाव विह्वल
आस्था जीवन को मढ़ी हर पीड़ा कर बेबस
पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस
समरसता की दृष्टि निरंतर होती विकसित
भारत भूमि इसीलिए जग करे आकर्षित
धन-धान्य सुख-वैभव की प्रसारित कर रस
पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस
दिया लौ द्वार से लेकर घर के कोने-कोने
हर घर में खुशियां छलकाए नयन-नयन दोने
जो भी कामना आशीष देकर ईश्वर प्रेम बरस
पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस।
धीरेन्द्र सिंह
18.10.2025
20.06
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