प्रणय का पल्लवन भी जारी है
दबोचती अक्सर दुनियादारी है
हृदय के मूल बसा रहता प्यार
अपना परिवेश भी देता खुमार
सम्मिश्रण यह धार दुधारी है
दबोचती अक्सर दुनियादारी है
क्यों खींचूं मन चाह है सींचता
क्यों रुकूँ परिवेश राह है खींचता
स्पंदनों में महकती धुन प्यारी है
दबोचती अक्सर दुनियादारी है
उम्र की पंखुड़ियों से है सजा प्यार
अनुभव की मंजुरियां हैं खिली बहार
समझ में बूझ करती चित्रकारी है
दबोचती अक्सर दुनियादारी है।
धीरेन्द्र सिंह
06.02.2025
10.15
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