मंगलवार, 2 अप्रैल 2024
देहरी
सोमवार, 1 अप्रैल 2024
गांव
सूनी गलियां सूनी छांव
पिघल रहे हैं सारे गांव
युवक कहें है बेरोजगारी
श्रमिक नहीं, ताके कुदाली
शिक्षा नहीं, पसारे पांव
पिघल रहे हैं सारे गांव
खाली खड़े दुमंजिला मकान
इधर-उधर बिखरी दुकान
वृक्ष के हैं गहरे छांव
पिघल रहे हैं सारे गांव
भोर बस की ओर दौड़
शहर का नहीं है तोड़
शाम को चूल्हा देखे आंव
पिघल रहे हैं सारे गांव
वृद्ध कहें जीवन सिद्ध
कहां से पाएं दृष्टि गिद्ध
घर द्वार पर कांव-कांव
पिघल रहे हैं सारे गांव
भागे गांव शहर की ओर
दिनभर खाली चारों छोर
रात नशे का हो निभाव
पिघल रहे हैं सारे गांव।
धीरेन्द्र सिंह
01.04.2024
18.30
रविवार, 31 मार्च 2024
सूर्य खिसका
सांझ पलकों में उतरी, सूर्य खिसका
आत्मभाव बोले कौन कहां किसका
चेतना की चांदनी में लिपटी भावनाएं
मुस्कराहटों में मछली गति कामनाएं
मेघ छटा है, बादल बरसा न बरसा
आत्मभाव बोले कौन कहां किसका
घाव हरे, निभाव ढंके, करे अगुवाई
दर्द उठे, बातें बहकी, छुपम छुपाई
जीवन एक दांव, चले रहे उसका
आत्मभाव बोले कौन कहां किसका
भ्रम के इस सत्य का सबको ज्ञान
घायल तलवार पर आकर्षक म्यान
युद्ध भी प्यार है, दाह है विश्व का
आत्मभाव बोले कौन कहां किसका।
धीरेन्द्र सिंह
31.03.2024
19.42
शनिवार, 30 मार्च 2024
कह दीजिए
क्यों प्रतीक, बिम्ब हों
क्यों हों नव अलंकार
यदि लहरें हैं तेज तो
कह दीजिए है प्यार
क्यों महीनों तक कश्मकश
क्यों सहें मानसिक चीत्कार
यदि प्रणय की प्रफुल्ल पींगे
कह दीजिए है प्यार
साहित्य सृजन है कल्पना
मनभाव का है झंकार
यदि यथार्थ जीना हो
कह दीजिए है प्यार
आदर्श, परंपरा और नैतिकता
प्रणय न जाने यह पतवार
यदि लहरों सा हौसला
कह दीजिए है प्यार।
धीरेन्द्र सिंह
शुक्रवार, 29 मार्च 2024
प्रक्रिया
सकारात्मक प्रेरणा रचना की है प्रक्रिया
रच जाती कविता मिले आपकी प्रतिक्रिया
पुष्प पंखुड़ियों से शब्द में सुगंध भरूं
प्रस्तुति पूर्ण हो नित सोचूं क्या करूं
धन्यवाद मुस्कराता, विश्वास जनित हिया
रच जाती कविता मिले आपकीं प्रतिक्रिया
खींच ले जाती कविता देख सन्नाटा
और मिश्रीत भावनाओं का ज्वार-भाटा
शब्द निबंधित, बिम्बित भावना क्रिया
रच जाती कविता मिले आपकी प्रतिक्रिया
अंतर्मन हो पवन, आपकी ले चेतना
विश्व एक प्रतिबिंब, छवि को देखना
शब्द कहें आपके, आप स्पंदित जिया
रच जाती कविता मिले आपकी प्रतिक्रिया।
धीरेन्द्र सिंह
29.03.2024
20.46
गुरुवार, 28 मार्च 2024
पहल प्रथम
होठों पर शब्द रहे भागते
अधर सीमाएं कैसे डांकते
हृदय पुलक रहा था कूद
भाव उलझे हुए थे कांपते
सामाजिक बंधनों की मौन चीख
नयन चंचल, पलक रहे ढाँपते
अपूर्ण होती रही रचनाएं सभी
साहित्य के पक्ष रहे जांचते
प्रणय की अभिव्यक्ति ही नहीं
व्यथाओं में भी, सत्य रहे नाचते
लिखते-लिखते लचक गए शब्द
बांचते-बांचते रह गए नापते
सम्प्रेषण अधूरा, कहते हैं पूरा
पोस्ट से हर दिन, रहे आंकते
सामनेवाला करे पहल प्रथम
भाव रहे लड़खड़ाते, नाचते।
धीरेन्द्र सिंह
28.03.2024
19.10
बुधवार, 27 मार्च 2024
मठाधीश
तलहटी में तथ्य को टटोलना
सत्य के चुनाव की है प्रक्रिया
कर्म की प्रधानता कहां रही
चाटुकारिता बनी है शुक्रिया
है कोई प्रमाण कहे तलहटी
घोषणाएं ही विश्वस्त क्रिया
अनुकरण जयघोष का गुंजन
दोलायमान धूरी ही समप्रिया
चल पड़े पग असंख्य, लालसा
कथ्यसा ककहरा द्रुत त्रिया
रटंत के हैं महंत दिग दिगंत
अंतहीन कामनाओं का हिया
व्यक्ति आलोड़ित अचंभित चले
मठाधीश मन्तव्य लगे दिया
तथ्य भ्रमित शमित जले
शोर है पथ आलोकित किया।
धीरेन्द्र सिंह
27.03.2024
20.26