शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

मन उचटता है

 कल्पनाओं में वही सूरज उगता है

मन उचटता है


याद है प्रातः आठ बजे की नित बातें

ट्रेन दौड़ती स्टेशन छूटता है न यादें

मन बौराया वहीं अक्सर भटकता है

मन उचटता है


कैसे पाऊं फिर वही सुरभित सी राहें

कहां मिलेगी हरदम घेरे रसिक वह बाहें

कभी-कभी तड़पन देता आह उछलता है

मन उचटता है


अब भी बोलता मन है अक्सर भोर में

तुम क्या सुन पाओगी हो तुम शोर में

यादों की टहनी पर नया भोर तरसता है

मन उचटता है।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

07.11

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