कल्पनाओं में वही सूरज उगता है
मन उचटता है
याद है प्रातः आठ बजे की नित बातें
ट्रेन दौड़ती स्टेशन छूटता है न यादें
मन बौराया वहीं अक्सर भटकता है
मन उचटता है
कैसे पाऊं फिर वही सुरभित सी राहें
कहां मिलेगी हरदम घेरे रसिक वह बाहें
कभी-कभी तड़पन देता आह उछलता है
मन उचटता है
अब भी बोलता मन है अक्सर भोर में
तुम क्या सुन पाओगी हो तुम शोर में
यादों की टहनी पर नया भोर तरसता है
मन उचटता है।
धीरेन्द्र सिंह
26.10.2025
07.11
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