सूई की तरह चुभते हुए रिश्ते
खोखली मुस्कराहटों के किस्से
खोखली मुस्कराहटों के किस्से
किस तरह बीच चलें अपनों के
कुछ तो अपने हों सबके हिस्से
कुछ तो अपने हों सबके हिस्से
घर, कुनबा वही स्थल पुरखों का
लोग बढ़ते गए लोग कहीं खिसके
खंडहर बन रहा है खानदानी घर
गांव खाली हवा गलियों में सिसके
सब के सब बस गए हैं पकड़ शहर
मिलना-जुलना भी जर्जर किस्म के
रिश्ता स्वार्थ बन गया है खुलकर
रिश्तेदारियां औपचारिक जिस्म के
यह परिवर्तन है स्वाभाविक दोष नहीं
यहां-वहां बिखरे सब अपने हित ले
एक घर में जितने हैं खुश रहें मिलकर
स्वार्थी रिश्तों में जान किस तिलस्म से।
धीरेन्द्र सिंह
26.10.2025
21.38
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