सुनता हूँ प्रायः
अपने भीतर की आवाज़ें
जो मात्र मेरी ही नहीं
उन अनेक लोगों की है
आवाज
जो गुजरे हैं मेरे हृदय से,
अनेक छूट गए हैं
जीवन राह में,
अनेक शत्रु बन गए हैं
अनेक तटस्थ भाव में हैं
जो पहले अभिन्न हुआ करते थे,
इनमें से कोई नहीं बोलता
कोई मोबाइल पर नहीं पुकारता
फिर भी
आती है आवाज,
आवाज ?
कोई बोलता नहीं तो
किसकी आवाज ?
कैसी जिह्वा ध्वनि?
यहां उभरा प्रश्न
क्या मात्र जिह्वा ही
माध्यम है ध्वनि का ?
हृदय में अनेक पदचिन्ह
बोलते हैं,
स्मृतियों के झोंके
कर जाते हैं बातें,
अब नहीं सुहाते
जिव्हा के बोल
क्योंकि मिलावट होने लगी है
शब्दों में, अर्थहीन, प्रयोजनहीन
इसलिए सच्ची लगती हैं
आ0ने भीतर की आवाज।
धीरेन्द्र सिंह
05.11.2025
21.40
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