बुधवार, 3 दिसंबर 2025

व्यक्ति

व्यक्ति जितना जीवन में संभल पाएंगे

स्वयं को और अभिव्यक्त कर पाएंगे

व्यक्ति निर्भर है किसी व्यक्ति पर ही

अकेला सोच कर व्यक्ति डर जाएंगे


हाँथ में हाँथ या कंधे पर थमा विश्वास

जुड़कर जीवनी जुगत कई कर जाएंगे

भीड़ में व्यक्ति अपनों को ही ढूंढता है

अपरिचित भीड़ भी तो व्यक्ति, कुम्हलायेंगे


निर्भरता स्वाभाविक है जीवन डगर में

मगर क्या आजन्म निर्भर रह पाएंगे

व्यक्ति आकर्षण है आत्मचेतनाओं का

वर्जनाओं में संभावनाएं तो सजाएंगे


मन है भागता कुछ अनजान की ओर

सामाजित बंधनों को कैसे तोड़ पाएंगे

तृप्त की तृष्णा में तैरती अतृप्तियां हैं

व्यक्ति भी व्यक्ति संग कितना संवर पाएंगे।


धीरेन्द्र सिंह

04.12.2025

06.51

गोवा



सोमवार, 1 दिसंबर 2025

बतकही

नहीं लिखूंगा नई रचना मन कहे नहीं

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


अभिव्यक्तियाँ कभी भी रुकती नहीं

आसक्तियां परिवेश से हैं कटती नहीं

संभावनाएं उपजे हों घटनाएं चाहे कहीं

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


अनुभूतियों का भावनाओं में जगमगाना

भावनाओं में अभिव्यक्तियों का कसमसाना

शब्दों में भाव घोलकर सम्प्रेषण रचें कई

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही


आदत है या ललक प्रतिदिन का लिखना

सृष्टि है स्पंदित तो कठिन है चुप रहना

कुछ उमड़-घुमड़ रहा पकड़ न पाएं अनकही

भावनाएं बोल उठीं करते हैं बतकही।


धीरेन्द्र सिंह

02.12.2025

06.13