एक कुंवारी सांझ हो तुम
कोमल मद्धम आंच हो
दिन बहुत छका चला अब
एक तुम्ही सहेली साँच हो
उपवन में सब फूल सूख रहे
तुम ही करुणा गाछ हो
जरा ठहर सुस्ताए जिंदगी
खुश मौसम का उवाच हो
दिन षड्यंत्र कर चलता बना
वह ढूंढ लिया जहां कांच हो
रात्रि बेला कर रही तैयारी
कब, कैसे उपद्रवी नाच हो
हे सांझ कुंवारी तुम ही कहो
कहां ऊर्जा संचयन खास हो
इधर-उधर जल रही आग है
बुझ जाए ऐसी कोई पांत हो।
धीरेन्द्र सिंह
23.08.2024
16.39
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