हर मौसम का अपना ही मिज़ाज है
हर मोहल्ले का अपना ही समाज है
अनेकता में एकता की है बुनियाद
लोग कहने लगे कि यह राजकाज है
तर्क के गलीचे पर शब्दों के गुलदान
सजावटी परिवेश में होता कलआज है
आश्वासनों में भुलावे का चलन है
अभिलाषाओं की तलहटी में राज है
हर बंद दरवाजे में निजता का राग है
द्वार घंटी लिए अलग-अलग साज है
किवाड़ खोलिए कि अंदर जज्बात भरे
भ्रमित, शमित, रचित कैसी आवाज है।
धीरेन्द्र सिंह
29.06.2024
07.24
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