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मंगलवार, 3 जुलाई 2012

आप से प्यार ना हुआ है

आप से प्यार ना हुआ है 
चुपके से एहसासों ने छुआ है 
सोचिये समझिए ना सकुचाईए
सावनी घटा सी बरस जाईये 


प्यार होता तो होती एक पुकार
मेरे एहसासों का आप हैं आधार 
दिग-दिगंत अपरिमित अनंत 
अगणित अद्भुदता आप दर्शाईए


सोचिए समझिए ना सकुचाईए
सावनी घटा सी बरस जाईए


सृष्टि को समझने की बड़ी आस है
इस रहस्य का राज़ आपके पास है 
व्योम की सुरभि, श्याम को झुकाईए
निरख रही पलकों को तो सजाईए


सोचिए समझिए ना सकुचाईए
सावनी घटा सी बरस जाईए


प्यार हो जाता लघु आपके समक्ष 
एहसासों के बन जाते कई कक्ष 
खंड-खंड जीवन को ना लुढ़काईए
पूर्णता पुरोधा बने गुर तो सिखलाईए 


आप से प्यार ना हुआ है 
चुपके से एहसासों ने छुआ है 
सोचिए समझिए ना सकुचाईए 
सावनी घटा सी बरस जाईए




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है 
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शुक्रवार, 22 जून 2012

स्वप्न नयनों से छलक पड़ते हैं


स्वप्न नयनों से छलक पड़ते हैं
बातें इरादों में दब जाती हैं
अधूरी चाहतों की सूची है बड़ी
चाहत संपूर्णता में कब आती है

चुग रहे हैं हम चाहत की नमी
यह नमी भी कहाँ अब्र लाती है
सब्र से अब प्यार मिले ना मिले
ज़िंदगी सोच यही हकलाती है

इतने अरमान कि सब बेईमान लगें
एहसान में भी स्वार्थ संगी-साथी है
दिल की तड़प, हृदय की पुकार  
आज के वक़्त को ना भाती है

प्यार के गीत लिखो प्यार डूबा जाय
इंसानियत निगाहों को ना समझ पाती है
फ़ेस बूक, ट्वीटर,एसएमएस की गलियाँ  
प्यार को तोड़ती, भरमाती हैं।



भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

रविवार, 8 मई 2011

नेह तुम्हारा


अब भी मेरे नयन पुलकित
आस की राहें हैं हर्षित
कौन कहता चुक गया स्नेह
शब्द मेरे नहीं हैं कल्पित

नेह जब तक है तुम्हारा
कल्पना में तुम सा तारा
कर दिया है जग समर्पित
भावों से तुम्हारे हो समर्थित

उम्र बढ़ता सा मचान है
संवेदनाएं लिए गहन ज्ञान है
जीवन कर रहा अर्जित
शून्य स्वप्निल गहन अर्थित

मोड़ कितने छोड़ गए
तोड़ गए कुछ निचोड़ गए
एक बस आधार निर्मित
आशाओं के द्वार सुरभित.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता, 
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

चाँद चौखट पर बैठा

चाँद चौखट पर बैठा चांदनी बिखर गयी
आपके चहरे को छूकर चांदनी निखर गयी
रात्रि ने करवट बदलकर आपसे क्या बात की
चंद लम्हे में ही जुल्फें आपकी बिखर गयी

आसमान में सितारे पलकें झपकाते पुकारे
ओ निशा क्या बात है क्यों तुम सिहर गयी
मेरी पलकों ने झपकने से जो किया इनकार
चन्दा की सुन फुसफुसाहटें चांदनी बिफर गयी

एक ऐसा द्वन्द जिसकी ना थी कभी कामना
मेरे और चंदा के बीच कैसे यह छिड़ गयी
आपका सौंदर्य भी दे रहा था चुनौतियां खिलकर
प्यार की प्रांजलता पशोपेश में सिफर भई

चाँदनी को कर प्रखर चंदा बरबस निहारे
आसमान भी झुक गया सितारों की बन गयी
बदलियाँ भी मेरी पलकों पर लगी गुजरने
आप तो सोयी हुयी थीं रात पूरी बहक गयी.
 


भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता 
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता, 
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

बोल दो ना कब मिलूं


रूप हो तुम चाहतों की
निज मन की आहटों की
और अब मैं क्या कहूँ
और कितना चुप रहूँ

केश का विन्यास हो कि
अधरों का वह मौन स्पंदन
क्रन्दनी मन संग क्या करूँ
और कितना धैर्य धरूं

यह शराफत श्राप मेरा
लोक-लाज अभिशापी घेरा
मन वलयों को कितना गहूँ
और कितना जतन करूँ

प्रीत की खींची प्रत्यंचा
रीत है पकड़ी तमंचा
काव्य कितना और लिखूं
बोल दो ना कब मिलूं.




भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता,
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

शनिवार, 19 मार्च 2011

दर्द रंग में भींगा सकूं


कर्मठता का रंग लिए मैं खेल रहा हूं होली

सूनी आँखें टीसते दिल की ढूंढ रहा हूँ टोली



रंग, उमंग, भाँग में डूबनेवाले यहाँ बहुत हैं

रंगहीन जो सहम गए हैं बोलूँ उनकी बोली



अपनी खुशियाँ सबमें बांटू जिनका सूना आकाश

दर्द रंग में भींगा सकूं ऐसे हों हमजोली



दर्द-दुखों के संग मैं खेलूँ रंग असर रसदार

सूनी आँखों चहरे पर दे खुशियों की रंगरोली



निकल चला हूँ दर्द ढूँढने सड़कों पर गलियों में

मुझ जैसे और मिलेंगे क्या खूब जमेगी होली.






भावनाओं के पुष्पों से,हर मन है सिज़ता
अभिव्यक्ति की डोर पर,हर धड़कन है निज़ता, 
शब्दों की अमराई में,भावों की तरूणाई है
दिल की लिखी रूबाई मे,एक तड़पन है निज़ता.

बुधवार, 24 नवंबर 2010

जब से मिला हूं...

जब से मिला हूँ आपसे, रूमानियत छा गई है
खामोशी भाने लगी है, इंसानियत आ गई है.

खयालों में, निगाहों में, चलीं रिमझिमी फुहारें
वही बातें, वही अदाऍ, रवानियत भा गई है.

धड़कनों में समाई है, खनकती गुफ्तगू अपनी
खयालों में उलझी सी, एक कहानी आ गई है.

बहुत मुश्किल है अब और, छुपाना दिल में
मेरे अंदाज़ में आपकी, जिंदगानी छा गई है.

आपका अलहदा नूर, करे मदहोश चूर-चूर
खुद से चला दूर, ऋतु दीवानी बुला गई है.

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

चाँद, चौका, चांदनी

चाँद चौके बैठ गया चांदनी लाचार
बेपहर का भोजन यह कैसा अत्याचार
आसमान हलक गया फैलाया अरुणाई
सितारों ने निरखने को बांध ली कतार


चंदा बोला चांदनी मैं हूँ तेरा भरतार
छोड़ न अकेला मुझे भूख के मझधार
आसमान ने बादलों से किया निवेदन
घेरो न चंदा को है यह अनोखा प्यार


चांदनी ने कहा कैसी जिद यह बारम्बार
आप हठीले हो रहे टूट रहा ऐतबार
आसमान मौनता में लिए एक गुबार
चाँद में देखे बांकपन का नया खुमार


चाँद बोला पेट भर कर ले रहे लोग फुफकार
पेट भर कर सोने को मेरा भी जी रहा पुकार
चांदनी में स्वप्न का सज रहा वहां संसार
मैं निसहाय सा न रह सकूं यहाँ लाचार


चांदनी हंस पड़ी सुन चाँद का यह विचार
भूख, चौका, चांदनी, और नींद का इकतार
बैठ चौका में बुनने लगी एक स्वाद नया
चाँद गुमसुम मुस्कराए बाँट अपना प्यार.

सोमवार, 22 नवंबर 2010

देह देहरी

देह देहरी पर क्यों बैठे बन प्रहरी
पंखुड़ी पर बूंद कुछ पल है ठहरी
अपलक क्यों हैं खुद को थकाईएगा
जड़वत रहेंगे या मन तक जा पाईएगा

कशिश है, तपिश है, सौंदर्य है, सिरमौर है
प्रीति की रीति यहीं मनभावन ठौर है
गुनने-बुनने में क्या दौर यह भगाईएगा
तट तक रहेंगे या मन भर गुनगुनाईएगा

सृष्टि सिमट जाती है  अनोखे आगोश में
बेसुध हो जाते हैं आते तो हैं होश में
बेखुदी में आप भी भरम और फैलाईएगा
एक-दूजे को समझेंगे या बरस जाईएगा

वेदना, संवेदना की जागृत यहीं संचेतना
उद्भव, पराभव का स्वीकृत यहीं नटखट मना
देह देहरी पल्लवन में कहॉ तक भटकाईएगा
प्रहरी रहेंगे या फिर मन हो जाईएगा.

रविवार, 21 नवंबर 2010

एक अर्चना निजतम हो तुम

सुंदर से सुंदरतम हो तुम, अभिनव से अभिनवतम हो तुम
आकर्षण का दर्पण हो तुम, शबनम से कोमलतम हो तुम:
ऑखों में वह शक्ति कहॉ जो, सौंदर्य तुम्हारा निरख सके
अप्रतिम मौन लिए मन में, स्नेह-नेह सघनतम हो तुम.

धीरे-धीरे धुनक-तुनक कर,शब्द तुम्हारे धवल, नवल नव
भाव बहाव का सुरभि निभाव, चॉदनी सी शीतलतम हो तुम:
मैं अपलक आतुर अह्लादित, पाकर साथ तुम्हारा निर्मल
तपती धूप की प्यास हूँ मैं, सावनी बदरिया गहनतम तुम.

जीवन जज्बा, किसका किसपर कब, अपनेपन का कब्ज़ा
मुक्त गगन सा खिले चमन सा, एक विहंग उच्चतम हो तुम
;

व्यक्ति-व्यक्ति का, मानव भक्ति का, सौंदर्य शक्ति की सदा विजय
रिक्ति-रिक्ति आसक्ति प्रीति की, एक अर्चना निजतम हो तुम.

धीरेन्द्र सिंह.

शनिवार, 20 नवंबर 2010

उड़ न चलो

उड़ न चलो संग मन पतंग हो रहा है
देखो न आसमान का कई रंग हो रहा है
एक तुम हो सोचने में पी जाती हो शाम
फिर न कहना मन क्यों दबंग हो रहा है

आओ चलें समझ लें खुद की हम बातें

कुछ बात है खास या तरंग हो रहा है
एक सन्नाटे में ही समझ पाना मुमकिन
चलो उडें यहाँ तो बस  हुडदंग हो रहा है

मत डरो सन्नाटे में होती हैं सच बातें

मेरी नियत में आज फिर जंग हो रहा है
ऊँचाइयों  से सरपट फिसलते खिलखिलाएं हम
देखो न मौसम भी खिला भंग हो रहा है

आओ उठो यूँ बैठने से वक़्त पिघल जायेगा

फिर न कहना वक़्त नहीं मन तंग हो रहा है
एक शाम सजाने का न्योता ना अस्वीकारो
बिखरी है आज रंगत तन सुगंध हो रहा है.

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

अपनत्व

लिए जीवन उम्र की भार से
एक हृदय ईश्वरी पुकार से
जीवन के द्वंद्व की ललकार से
बुढ़ापे को दे रहा अमरत्व है

ले आकांक्षा स्वप्निल सत्कार से
एक मन आंधियो के अंबार से
लिप्त जीवन के बसे संसार से
वृद्धता मचले जहां ममत्व है

दृष्टि में सृष्टि की ख़ुमार से
तन की लाचारी भरी गुहार से
भावनाओं को मिली बुहार से
कृशकाया से छूट रहा घनत्व है

अंजुरी में छलकते दुलार से
आंगन के कोलाहली बयार से
कुछ नहीं बेहतर परिवार से
बुढ़ौती का यही अपनत्व है

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

अबूझा यह दुलार है

मन के हर क्रंदन में, वंदनीय अनुराग है
नयन नीर तीर पर, सहमा हुआ विश्वास है,
अलगनी पर लटका-लटका देह स्नेह तृष्णगी
ज़िंदगी अलमस्त सी, लगे कि मधुमास है

घटित होती घटनाओं का सूचनाई अम्बार है
इस गली में छींक-खांसी, उस गली बुखार है,
प्रत्यंचा सा खिंचा, लिपा-पुता हर चेहरा
ज़िंदगी फिर भी धड़के, गज़ब का करार है

शबनमी तमन्नाओं में, नित ओस बारम्बार है
स्वप्न महल बन रहा, खोया-खोया आधार है,
आसमान को पकड़ने को, थकन चूर कोशिशें
ज़िंदगी फिर भी उड़े, अबूझा यह दुलार है

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

मुहब्बत ना नकारा जाये

दर्द भी दिल के दायर को खूब सजाये
बेकरारी बेख़ौफ़ बढ़ती ही चले जाये
हवाओं की नमी में कैसा यह संदेसा
टीस उभरे और टपकने को मचल जाये

अंजुरी भर लिए खुशिओं का एक एहसास

दिन खुले और रजनी में समाता जाये
याद सजनी की खुश्बू सी रही फ़ैल अब
दिल बेचैन लिए बस्ती में घुमाता जाये

जो मिले बस मुझको पल भर को मिले

ज़िन्दगी को कौन यह जुगनू बनाता जाये
अपनी चमक से मिली ना तसल्ली अभी
दर्द के दाम में कोई मुझको बहाता जाये

धूप भी अच्छी लगे छाँव का हो आसरा

जेठ दुपहर में जीवन ना अब गुजारा जाये
दर्द में आह के सिवा ना कुछ और मिले
मैं भी मजबूर मुहब्बत ना नकारा जाये.

कोयल पीहू-पीहू बोले

बोलो ना कुछ, अलसाया-अलसाया सा मन है
आओ करीब मेरे, सुनो यह मन कुछ बोले,
कितना सुख दे जाता है,पास तुम्हारा रहना
एक हसीन थिरकन पर,तन हौले-हौले डोले

और तुम्हारी सॉसो में लिपट,यह चंचल मन
गहरे-गहरे उतर, तुम्हारे मन से कहे अबोले,
और बदन तुम्हारा बहके,देह गंध मुस्काए
मेरी अंगुली थिरक-थिरक कर, पोर-पोर खोले

मुख पर केश जो आए, बदरिया घिर-घिर छाए
झूम-झूम अरे चूम-चूम,मेरी चाहत को तौले,
हॉथ कहीं तो श्वास कहीं,कहॉ-कहॉ क्या हो ले
छनक ज़िंदगी ताल मिलाए, कोयल पीहू-पीहू बोले

सोमवार, 15 नवंबर 2010

दिल

कहीं उलझ कर अब खो गया है दिल
खामोशी इतनी लगे कि सो गया है दिल
ख़ुद में डूबकर ना जाने क्या बुदबुदाए
नमी ऐसी लगे कि रो गया है दिल

मेरे ही ज़िस्म में बेगाना लग रहा
करूं बहाने तब कहीं मिलता है दिल
अधूरे ख्वाब,चाहतें अधूरी, दिल भी
अरमानी डोर से आह सिलता है दिल

अलहदा रहने लगा आसमान सा अब
सपना सजना के अंगना, अबोलता दिल
रखना किसी की चाह में नूर-ए-ज़िंदगी
बेख़ुदी में हर लम्हे को तौलता है दिल

यह कैसी प्यास कि बुझना ना जाने
यह कैसी आस कि तकता रहे दिल
यह कौन सी मुराद कि फरियाद ना करे
यह कैसा दुलार कि ना थकता है दिल. 

मंज़िल

मुझको मिली है मंज़िल, खुशियॉ मनाऊँगा
लम्हों को रोक लूँगा, और गीत गाऊँगा,
ऐसी भी चाहते हैं जो, मिलती नहीं दोबारा
चंदन की चॉदनी में, चंदा सजाऊँगा

धरती की चूनर में, आसमां चाहे लिपटना
तारों से लिपटकर के, सूरज को बुलाऊँगा
समंदर में सजाकर के, नयनों की दीपशिखा
सपनों की बातियों में, नई ज्योत जगाऊँगा

आख़िर में ज़िंदगी को, पहुँचना है उस पार
अंजुरी में भर विश्वास, इतिहास रचाऊँगा,
वक्त के काफिले से निकाल लूँगा, तुम्हें, मैं
वज़ीफा ख़ुद को देकर,  सबको सुनाऊंगा.

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 7 नवंबर 2010

अपने तलक ही रखना

अपने तलक ही रखना, कहीं ना बात निकल  जाए
है अपना यही राज, कहीं
ना  बात फिसल  जाए

लोगों के दरमियॉ,,खुली किताब का वज़ूद
क्या
एक ज़िल्द चढ़ाए रखना, कहीं ना झलक जाए

माना कि सूरज को, छुपाना है बहुत मुश्किल
झोंके से बचे रहना,कहीं बादल
ना निकल जाए

होता नहीं आसान, ज़ज्बातों से बच कर रहना
हलकी सी छुवन से, कहीं दिल
ना पिघल जाये

है हिम्मत और हौसला, अपनी राह पर चलना
एक दुनिया बनी है अपनी, कोई ना छल पाए.  

शबनमी बारिश

आज जब शाम से, तनहाई में मुलाकात हुई
रात ढलने से पहले, चॉदनी मेरे साथ हुई,
कुछ उजाले और कुछ अंधेरे से, मौसम में
डूबते सूरज से, सितारों की बरसात हुई.

मैं रहा देखता बस, बदलती इस तस्वीर को
चाहतें चुलबुली की, नज़रों से कई बात हुई,
शाम के झुरमुटों से, कुछ ऐसी चली हवा
ज़ुल्फें उड़ने लगी और ज़िंदगी जज्बात हुई.

कसमसाहट सी उठे, जिस्म तब पतवार लगे
इश्क कश्ती बहक, ना जाने किस घाट हुई,
यूँ ही अक्सर जब चहक पूछा करो मेरा हाल
गुल के शबनम सी, तबीयत की ठाठ हुई.

शाम के वक्त सा, चौराहा बन गया जीवन
रोशनी तो कहीं, अंधेरे से मुलाकात हुई,
किस कदर खामोश हो, देखता रहता है दिल
शबनमी बारिश जब, इश्क की सौगात हुई.

आँखें

बहुत सीखती रहती है ज़माने से आँखें
ढूँढती रहती नयी राह जमाने में आँखें

होठों पर बिखरी है, मुस्कराहट हरदम
दर्द कोरों मे छुपा लेती हैं, नटखट आखें.

बहुत से ख्वाब बिखरे हैं, सवालों को लिए
जवाब ढूँढती है हकीकत में उलझी आँखें

भरी महफिल में, दिख रहे मशगूल लोग
उदासी को छुपा ना पाए, मटकती आखें.

रंगीन ऐनक  में, छुपाने की पुरजोर कोशिश
बात-बेबात बोल जाती हैं, सबकी आखें.

नज़र से नज़र चुराती हैं, यह चंचल आखें
नज़र से नज़र मिले करे, एक दंगल आँखें