खिल-खिल हथेलियों पर, मेहँदी खिलखिलाए रे
अपनी सुंदरता पर, प्रीत बिछी जाए रे,
कुहक रही सखियॉ सब, कोयलिया की तान सी
हिय में नया जोश भरा, छलक-छलक जाए रे
मेहँदी सब देखे, सब जाने-बूझे बतिया
अँखियन के बगियन में, सपन दे सजाए रे
ऐसी निगोड़ी बनी, छोरी छमक सखियॉ सब
साजन का नाम ले, हिया दे बहकाय रे
अधरों पर सजने लगे, सावनिया गान सब
सॉवरिया सजन अगन, दिया दहकाय रे,
बरसा की बूंदे भी, छन-छन कर उड़ जाए
बदन के ऑगन में, नया राग बजा जाए रे.
रविवार, 28 नवंबर 2010
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
हुस्न की साजिश
एक हुस्न की साजिश है
एक अदा की है रवानगी
सब कुछ निखर रहा है
दे दी क्या यह दीवानगी
अपनी डगर की मस्तियों में
बिखरी रहती थी चॉदनी
तारों में अटके ख्वाब कुछ
घुलती रहती थी रागिनी
अब कहॉ गया है दिल
कहॉ गई वह सादगी
किसकी राह तके ऑखें
पसरी हुई बस बेचारगी
शोला लपक गया यकायक
खिलने लगी है बेखुदी
अब हुस्न का दरिया बसेरा
और चाहत भरी आवारागी
एक अदा की है रवानगी
सब कुछ निखर रहा है
दे दी क्या यह दीवानगी
अपनी डगर की मस्तियों में
बिखरी रहती थी चॉदनी
तारों में अटके ख्वाब कुछ
घुलती रहती थी रागिनी
अब कहॉ गया है दिल
कहॉ गई वह सादगी
किसकी राह तके ऑखें
पसरी हुई बस बेचारगी
शोला लपक गया यकायक
खिलने लगी है बेखुदी
अब हुस्न का दरिया बसेरा
और चाहत भरी आवारागी
गुरुवार, 25 नवंबर 2010
विवाहेतर सब्ज बाग
जब भी मिलतें हैं, होती हैं सिर्फ बातें
एक दूजे से हम खुद को छुपाते हैं
घर गृहस्थी की हो जाती है चर्चा
ना वह रुकते ना हम कह पाते हैं
जीवन के मध्य में भी ऐसा होता है
हम उन्हें बुलाएं वह मुझे सताते हैं
एक पीपल में बांध आई डोर सुना
तब से हम रोज जल वहां चढ़ाते हैं
एक आकर्षण खींच रहा क्यों मुझको
क्यों विवाहेतर सब्ज बाग हम बनाते हैं
जब दिखी लौ पतिंगा सी बेबसी पाया
लिख कविता पतिंगे सा गति पाते हैं
फिर सुबह होते ही वह उभर आते हैं
कभी गंभीर दिखें, कभी मुस्कराते हैं
बेबसी दिल की जो समझे वही जाने
जिंदगी युग्म है और भावों के फ़साने हैं.
एक दूजे से हम खुद को छुपाते हैं
घर गृहस्थी की हो जाती है चर्चा
ना वह रुकते ना हम कह पाते हैं
जीवन के मध्य में भी ऐसा होता है
हम उन्हें बुलाएं वह मुझे सताते हैं
एक पीपल में बांध आई डोर सुना
तब से हम रोज जल वहां चढ़ाते हैं
एक आकर्षण खींच रहा क्यों मुझको
क्यों विवाहेतर सब्ज बाग हम बनाते हैं
जब दिखी लौ पतिंगा सी बेबसी पाया
लिख कविता पतिंगे सा गति पाते हैं
फिर सुबह होते ही वह उभर आते हैं
कभी गंभीर दिखें, कभी मुस्कराते हैं
बेबसी दिल की जो समझे वही जाने
जिंदगी युग्म है और भावों के फ़साने हैं.
बुधवार, 24 नवंबर 2010
जब से मिला हूं...
जब से मिला हूँ आपसे, रूमानियत छा गई है
खामोशी भाने लगी है, इंसानियत आ गई है.
खयालों में, निगाहों में, चलीं रिमझिमी फुहारें
वही बातें, वही अदाऍ, रवानियत भा गई है.
धड़कनों में समाई है, खनकती गुफ्तगू अपनी
खयालों में उलझी सी, एक कहानी आ गई है.
बहुत मुश्किल है अब और, छुपाना दिल में
मेरे अंदाज़ में आपकी, जिंदगानी छा गई है.
आपका अलहदा नूर, करे मदहोश चूर-चूर
खुद से चला दूर, ऋतु दीवानी बुला गई है.
खामोशी भाने लगी है, इंसानियत आ गई है.
खयालों में, निगाहों में, चलीं रिमझिमी फुहारें
वही बातें, वही अदाऍ, रवानियत भा गई है.
धड़कनों में समाई है, खनकती गुफ्तगू अपनी
खयालों में उलझी सी, एक कहानी आ गई है.
बहुत मुश्किल है अब और, छुपाना दिल में
मेरे अंदाज़ में आपकी, जिंदगानी छा गई है.
आपका अलहदा नूर, करे मदहोश चूर-चूर
खुद से चला दूर, ऋतु दीवानी बुला गई है.
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
चाँद, चौका, चांदनी
चाँद चौके बैठ गया चांदनी लाचार
बेपहर का भोजन यह कैसा अत्याचार
आसमान हलक गया फैलाया अरुणाई
सितारों ने निरखने को बांध ली कतार
चंदा बोला चांदनी मैं हूँ तेरा भरतार
छोड़ न अकेला मुझे भूख के मझधार
आसमान ने बादलों से किया निवेदन
घेरो न चंदा को है यह अनोखा प्यार
चांदनी ने कहा कैसी जिद यह बारम्बार
आप हठीले हो रहे टूट रहा ऐतबार
आसमान मौनता में लिए एक गुबार
चाँद में देखे बांकपन का नया खुमार
चाँद बोला पेट भर कर ले रहे लोग फुफकार
पेट भर कर सोने को मेरा भी जी रहा पुकार
चांदनी में स्वप्न का सज रहा वहां संसार
मैं निसहाय सा न रह सकूं यहाँ लाचार
चांदनी हंस पड़ी सुन चाँद का यह विचार
भूख, चौका, चांदनी, और नींद का इकतार
बैठ चौका में बुनने लगी एक स्वाद नया
चाँद गुमसुम मुस्कराए बाँट अपना प्यार.
बेपहर का भोजन यह कैसा अत्याचार
आसमान हलक गया फैलाया अरुणाई
सितारों ने निरखने को बांध ली कतार
चंदा बोला चांदनी मैं हूँ तेरा भरतार
छोड़ न अकेला मुझे भूख के मझधार
आसमान ने बादलों से किया निवेदन
घेरो न चंदा को है यह अनोखा प्यार
चांदनी ने कहा कैसी जिद यह बारम्बार
आप हठीले हो रहे टूट रहा ऐतबार
आसमान मौनता में लिए एक गुबार
चाँद में देखे बांकपन का नया खुमार
चाँद बोला पेट भर कर ले रहे लोग फुफकार
पेट भर कर सोने को मेरा भी जी रहा पुकार
चांदनी में स्वप्न का सज रहा वहां संसार
मैं निसहाय सा न रह सकूं यहाँ लाचार
चांदनी हंस पड़ी सुन चाँद का यह विचार
भूख, चौका, चांदनी, और नींद का इकतार
बैठ चौका में बुनने लगी एक स्वाद नया
चाँद गुमसुम मुस्कराए बाँट अपना प्यार.
सोमवार, 22 नवंबर 2010
देह देहरी
देह देहरी पर क्यों बैठे बन प्रहरी
पंखुड़ी पर बूंद कुछ पल है ठहरी
अपलक क्यों हैं खुद को थकाईएगा
जड़वत रहेंगे या मन तक जा पाईएगा
कशिश है, तपिश है, सौंदर्य है, सिरमौर है
प्रीति की रीति यहीं मनभावन ठौर है
गुनने-बुनने में क्या दौर यह भगाईएगा
तट तक रहेंगे या मन भर गुनगुनाईएगा
सृष्टि सिमट जाती है अनोखे आगोश में
बेसुध हो जाते हैं आते तो हैं होश में
बेखुदी में आप भी भरम और फैलाईएगा
एक-दूजे को समझेंगे या बरस जाईएगा
वेदना, संवेदना की जागृत यहीं संचेतना
उद्भव, पराभव का स्वीकृत यहीं नटखट मना
देह देहरी पल्लवन में कहॉ तक भटकाईएगा
प्रहरी रहेंगे या फिर मन हो जाईएगा.
पंखुड़ी पर बूंद कुछ पल है ठहरी
अपलक क्यों हैं खुद को थकाईएगा
जड़वत रहेंगे या मन तक जा पाईएगा
कशिश है, तपिश है, सौंदर्य है, सिरमौर है
प्रीति की रीति यहीं मनभावन ठौर है
गुनने-बुनने में क्या दौर यह भगाईएगा
तट तक रहेंगे या मन भर गुनगुनाईएगा
सृष्टि सिमट जाती है अनोखे आगोश में
बेसुध हो जाते हैं आते तो हैं होश में
बेखुदी में आप भी भरम और फैलाईएगा
एक-दूजे को समझेंगे या बरस जाईएगा
वेदना, संवेदना की जागृत यहीं संचेतना
उद्भव, पराभव का स्वीकृत यहीं नटखट मना
देह देहरी पल्लवन में कहॉ तक भटकाईएगा
प्रहरी रहेंगे या फिर मन हो जाईएगा.
रविवार, 21 नवंबर 2010
एक अर्चना निजतम हो तुम
सुंदर से सुंदरतम हो तुम, अभिनव से अभिनवतम हो तुम
आकर्षण का दर्पण हो तुम, शबनम से कोमलतम हो तुम:
ऑखों में वह शक्ति कहॉ जो, सौंदर्य तुम्हारा निरख सके
अप्रतिम मौन लिए मन में, स्नेह-नेह सघनतम हो तुम.
धीरे-धीरे धुनक-तुनक कर,शब्द तुम्हारे धवल, नवल नव
भाव बहाव का सुरभि निभाव, चॉदनी सी शीतलतम हो तुम:
मैं अपलक आतुर अह्लादित, पाकर साथ तुम्हारा निर्मल
तपती धूप की प्यास हूँ मैं, सावनी बदरिया गहनतम तुम.
जीवन जज्बा, किसका किसपर कब, अपनेपन का कब्ज़ा
मुक्त गगन सा खिले चमन सा, एक विहंग उच्चतम हो तुम;
व्यक्ति-व्यक्ति का, मानव भक्ति का, सौंदर्य शक्ति की सदा विजय
रिक्ति-रिक्ति आसक्ति प्रीति की, एक अर्चना निजतम हो तुम.
धीरेन्द्र सिंह.
आकर्षण का दर्पण हो तुम, शबनम से कोमलतम हो तुम:
ऑखों में वह शक्ति कहॉ जो, सौंदर्य तुम्हारा निरख सके
अप्रतिम मौन लिए मन में, स्नेह-नेह सघनतम हो तुम.
धीरे-धीरे धुनक-तुनक कर,शब्द तुम्हारे धवल, नवल नव
भाव बहाव का सुरभि निभाव, चॉदनी सी शीतलतम हो तुम:
मैं अपलक आतुर अह्लादित, पाकर साथ तुम्हारा निर्मल
तपती धूप की प्यास हूँ मैं, सावनी बदरिया गहनतम तुम.
जीवन जज्बा, किसका किसपर कब, अपनेपन का कब्ज़ा
मुक्त गगन सा खिले चमन सा, एक विहंग उच्चतम हो तुम;
व्यक्ति-व्यक्ति का, मानव भक्ति का, सौंदर्य शक्ति की सदा विजय
रिक्ति-रिक्ति आसक्ति प्रीति की, एक अर्चना निजतम हो तुम.
धीरेन्द्र सिंह.
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