तुम न, पुष्प में तीर का अदब रखती हो
सुन न, सुप्त के धीर
सा गजब करती हो
आत्मसंवेदना एकाकार हो स्वीकार
करने लगें
आत्मवंचना द्वैताकार को
अभिसार करने लगे
धुन न, विलुप्त सी
प्राचीर जद बिहँसती हो
सुन न, सुप्त के धीर
से गजब करती हो
आप, तुम, तू आदि शब्द
भाव प्रणय संयोजन
संबोधन है पुचकारता हो उत्सवी
नव आयोजन
गुन न, गुणवत्ता में
कितनी और निखरती हो
सुन न, सुप्त के धीर
में गजब करती हो
तू शब्द प्यार में संबोधन
गहन रचे मदभार
तू संबोधित ईश्वर असहनीय
हो अत्याचार
बुन न, प्रीत चदरिया
जिसमें रश्मि बिखरती हो
सुन न, सुप्त के धीर
में गजब करती हो।
धीरेन्द्र सिंह
11.07.2024
06.30
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