प्रातः पांच बजे आया एक फ्रेंड रिक्वेस्ट
मन बोला स्वीकार करो हैं यह श्रेष्ठ
बुद्धि बोली, मन तू इनको कैसे जाने
मन बोला, बुद्धि, समूह के जाने-माने
फिर बोला, चुनते मित्र, होते चिंतन ज्येष्ठ
मन बोला स्वीकार करो हैं यह श्रेष्ठ
स्वीकार कर, बुद्धि मैसेंजर को दौड़ा
प्रातःकालीन सुभाषित से दिया ओढ़ा
बोली वह, बातें मीठी तथ्यपरक यथेष्ट
मन बोला स्वीकार करो हैं यह श्रेष्ठ
एक घंटे तक लगातार की मिल बातें
मैंने साहित्य कहा, भावना में थीं आगे
प्रश्नों के झुरमुट में, समाधान था सेठ
मन बोला स्वीकार करो हैं यह श्रेष्ठ
गिने-चुने मित्रों में, नए मित्र का शुमार
बोले टाइमलाइन दर्शाता, निज रचना संसार
मिलकर हम दोनों से, पौ फटी निश्चेष्ट
मन बोला स्वीकार करो हैं यह श्रेष्ठ।
धीरेन्द्र सिंह
02.05.2024
11.07
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