अनुभूतियां अकुलाएं बुलाएं मधु भीनी
तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी
नवतरंग है नव उमंग है उम्र विहंग
जितना जीवन समझें उतना रंगविरंग
मुखरित हो अनुभूतियां ओढ़े चादर झीनी
तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी
अन्नपूर्णा स्थान है घर की रसोई
संग मसालों के दालचीनी भी खोई
क्षुधा तृप्ति निरंतर जग की कीन्ही
तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी
जुगनू सी जलती-बुझती हैं अभिलाषाएं
हृदय भाव का हठ किसको बतलाएं
स्व कर उन्मुक्त धरा सजल रस पीनी
तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी।
धीरेन्द्र सिंह
29.04.2024
09.24
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें