होठों पर शब्द रहे भागते
अधर सीमाएं कैसे डांकते
हृदय पुलक रहा था कूद
भाव उलझे हुए थे कांपते
सामाजिक बंधनों की मौन चीख
नयन चंचल, पलक रहे ढाँपते
अपूर्ण होती रही रचनाएं सभी
साहित्य के पक्ष रहे जांचते
प्रणय की अभिव्यक्ति ही नहीं
व्यथाओं में भी, सत्य रहे नाचते
लिखते-लिखते लचक गए शब्द
बांचते-बांचते रह गए नापते
सम्प्रेषण अधूरा, कहते हैं पूरा
पोस्ट से हर दिन, रहे आंकते
सामनेवाला करे पहल प्रथम
भाव रहे लड़खड़ाते, नाचते।
धीरेन्द्र सिंह
28.03.2024
19.10
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