सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

अनुष्ठान हो गया

 मैं खुद में खुद का अनुष्ठान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


उपहार में प्राप्त कई आत्मीय आभास

परिवेश मेरा भर दिए मिठास ही मिठास

मधुरता के व्योम में गुमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


रंगबिरंगी लड़ियों में जुगलबंदी के तार

एक लड़ी दूजे की ज्योति करे स्वीकार

घर जगमगा रहे बढ़ा तापमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


विधान का संविधान यह निज अनुष्ठान

अपनत्व से आपूरित हैं सारे ही मेहमान

इस भावुकता में अनुभव कमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2024

19.20



शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

अस्तित्व

 तुम मुझे टूटकर जिस दिन गुनगुनाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी


पहल कर नारी को इंगित करना न आदत

तुम मेरी होगी जैसे हो सूफियाना इबादत

मुझे छूकर तुम नव रचनाकार बन जाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी


छुवन मन का है होता यूं ही चर्चित है तन

विपरीत लिंगी आकर्षण प्राकृतिक चलन

मुड़ जाऊंगा यदि मुझे निःशब्द उलझाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी


वह होते और जो करते नारी का पीछा

न चाहे नारी तो कोई स्पंदन नहीं होता

मुझे विश्वास मेरे भावों को समझ पाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी।


धीरेन्द्र सिंह

25.10.2024

20.58




धूल जमी

 दीपावली से पहले घर की स्वच्छता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मत्तता


दीवारों पर धूल जमी उसकी हो सफाई

पानी-सर्फ घोल संग स्पंज की दौड़ाई

वैक्यूम क्लीनर की रहे सर्वोच्च इयत्ता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मत्तता


छोड़ देते कभी कर वादा गृह सज्जाकार 

मिलकर करते सफाई तब संग परिवार

कितनी निखर जाती यह संग संयुक्तता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मुक्तता


जग उठीं फिर घर की चहारदीवारी

दीपोत्सव पर्व के प्रकाश की लयकारी

कुछ दिन शेष ज्योतिपर्व उच्च महत्ता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मुक्तता।


धीरेन्द्र सिंह

25.10.2024

16.59 




बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

देह परे

 खोज में भी मौज है बहुत

संभावनाओं से हरा-भरा

प्यार वह ना कर सका

हादसों से जो भी है डरा


कामनाएं करें निरंतर याचनाएं

मन खिला-खिला रहा मुस्करा

भाव तरंगे मिले अनुकूल भी

बिन नहाए गंगा लगे मन तरा


अंकुश से भरे जो जीव हैं

अपने बंधनों से गिरे भरभरा

तृप्ति इनकी रुग्ण रहती सदा

और चाहें बढ़े समाज डरा-डरा


मुक्ति देती युक्ति जो करे प्रयुक्ति

देह दीप है जिसने लौ भरा

आत्मलीन हो पढ़ सका आत्मबोल

देह परे जिसने कुशल देह धरा।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2024

11.58


आंच

 प्रीत तुम्हें प्रतीति बना न सकी

रीत तुम्हें अतिथि बना न सकी

एक हवा का झोंका था गुजर गया

नीति तुम्हें नियति बना न सकी


तुम लपट लौ सा आकर्षण लिए

आंच हवन की जता न सकी

कामनाएं मंत्र सी होती रहीं उच्चारित

वेदिका सा तुमको सजा न सकी


कौन जातक बना याचक है रहस्य 

उपासना प्रणय को जगा न सकी

आत्माएं दोनों की थी हृदय दूर

आराधना भजन को पगा न सकी


उस अवधि की गांठ बंधती खुलती

स्मृतियों की डाल लचका न सकी

न जाने कब कुहूक जाती कोयल

यादें मुड़ती रहीं पर भटका न सकीं।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2024

10.10




मीठा दर्द

 मीठा-मीठा दर्द मिला है सयाने में

तुम बिन और रखा क्या जमाने में


बंधन में बंधे हुए जैसे हल में नधे हुए

चुपके-चुपके हैं दौड़ लगाते वीराने में

और सामाजिकता है घूरे, लगातार इसको

यह अपनी मस्ती में, बचते भरमाने में


प्यार रात को गुंजित होता, जैसे जुगनू

दिन फूलों सा लगता पल महकाने में

दिन ऐसे हैं गुजर रहे झिलमिल गुनगुन

ऐसे प्रेमी सहमत सब मिलता अनजाने में


कुछ भी नया नहीं, सदियों से होते आया

प्यार अगर तो, मिलते दुश्मन जमाने में

दिल ने दिल को चाह लिया, क्या गलती है

क्यों हो जाते बेदर्दी, उन्मुक्त जी पाने में।


धीरेन्द्र सिंह

23.10.2024

17.57




मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

इलेक्ट्रॉनिक प्यार

 इलेक्ट्रॉनिक बयार है मोबाइल की छांव

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव


चिकनी स्क्रीन पर दौड़ रही हैं अंगुलियां

अक्षर-अक्षर टाइप कर बोल रहे बोलियां

कहना औपचारिकता मांगे बस एक ठाँव

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव


फ़िल्टर से चेहरे में भरकर गजब निखार

हर दिन चाहें हो जाए इलेक्ट्रॉनिक त्यौहार

वीडियो चैट करते चले भाव लहर नाव

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव


धीर बनकर परिचय फिर बन जाते अधीर

इलेक्ट्रॉनिक प्यार में कहां मर्यादा लकीर

ब्लॉक अनब्लॉक खेल में करते आँय-बाँय

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव।


धीरेन्द्र सिंह

22.10.2024

16.32