शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

मीटिंग एक आदत या अनिवार्यता
नियमित है होती नया अक्सर लापता
इस संग यदि समारोह जुड़ जाए
भोजन समय चर्चा, कहो क्या पाए

फोटो की होड़ कोशिश जी तोड़
शब्दों के शास्त्रों से सोच दें मरोड़
बोलने की कोशिश बोलता ही जाए
चाय समय सोचें, क्या खोया क्या पाए

सोच और अभिव्यक्ति होती भिन्न- भिन्न
कथनी ना संयोजित तो कर दे मन खिन्न
प्रस्तुति कौशलकर्ता मन में खिलखिलाए
अभिव्यक्तिहीन कर्मठता उपेक्षित रह जाए

मीटिंगों का दौर एकसा सबका तौर
पर लगे ऐसा नवीन गहनता का तौर
मीटिंग समाप्ति पर मन जयकार लगाए
अबकी भी छूटे देखो अगली कब बुलाए।

धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

मैं
यह जानता हूँ
सच्चा प्रायः दंडित होता है
मैं मानता हूँ
हो सशक्त आधार खंडित होता है,

मैं
यह देखता हूँ
कर्मठ प्रायः लक्षित होता है
मैं जानता हूँ
उपद्रवी हमेशा दक्षित होता है

सत्य
क्या हमेशा परिभाषित होता है
सबूत
क्या हमेशा सुवासित होता है

मैं
जानता हूँ
प्रजातंत्र की घुमावदार गलियां
मैं 
मानता हूँ
विधि की असंख्य हैं नलियां

तब
सत्य कैसे जान पाएंगे
जो देखा
वही मान जाएंगे

क्या शकुनि व्यक्तित्व खत्म हो गया ?

सोमवार, 21 अगस्त 2017

अस्मिता असमंजस में
ओजस्विता कश्मकश में
ये अद्भुत बुद्धजीवी

लेखन लांछन में
चिंतन के छाजन में
ये अद्भुत बुद्धजीवी

हिंदी के हाल में
साहित्यिक चाल में
ये अद्भुत बुद्धजीवी

राजनीतिक राग में
सामाजिक अनुराग में
ये अद्भुत बुद्धजीवी

विद्रोह के स्वांग में
गुटबंदी की भांग में
ये अद्भुत बुद्धजीवी

आलस की आस में
बेतुकी बरसात में
ये अद्भुत बुद्धजीवी।


बुधवार, 16 अगस्त 2017

बेचैनियां करा देती हैं एहसासी गबन
ऐ भ्रष्टाचार तू स्पंदन में ढल गया
नादानियाँ प्यार की आभूषण लगे
ऐ शिष्टाचार तू क्रंदन में गल गया

किशोरावस्था का उन्माद ताउम्र रहे
उम्र के ताबेदार, कारवां निकल गया
जीनेवाले, ज़िन्दगी को हर वक़्त सजाएं
साल गिनानेवालों का, मामला टल गया

प्यार को उम्र के चौखटों में वे चपोतें
गोते क्या जाने, जीवन बहल गया
करने लगे भक्ति जिसकी है प्यार शक्ति
परिवर्तित हो प्यार पल में पल गया।

इंसान में भगवान रे मनवा अब पहचान
सम्मान है प्यार जो मचल गया
सब प्यार के पुजारी अंदाज़ है अलग
प्यार, प्यार और प्यार चल गया।

सोमवार, 14 अगस्त 2017

राष्ट्र है
धृतराष्ट्र ना बना
करोड़ों की शान
मन में है घना

राष्ट्र है
शास्त्र कई आधार बना
जीवन के कई पथ बना
करे सामाजिक संघटना

राष्ट्र है
शस्त्र को न भोथरा बना
शस्त्र पूजा कर अर्चना
काले मेघ हुंकारे घना

राष्ट्र है
भ्रष्ट्राचार शिष्टाचार न बना
आवाज को बुलंद बना
भ्रस्टाचारी काटते तना

राष्ट्र है
श्रेष्ठ महान प्रजातंत्र बना
स्वतंत्रता में बलिदान घना
बलिदानियों पर शीश नवा

राष्ट्र है
मात्र खास दिवसों में न समा
रोम रोम में तिरंगा की बसा
नमन समर्पण गर्वित मन सजा।
बस एक थोड़ा सा मन है
शेष तो सब यहाँ गबन है
थोड़ा वक्त थोड़ा प्यार है
थोड़ी ज़मीं थोड़ा चमन है

अख्तियार पूरा करने की ज़िद
पूरा खुद कहां, कहां मन है
थोड़ा जो उनसे मिल पा जाऊं
ज़िन्दगी का वही आचमन है

हैं बहुत दूर प्रीत का लिए गुरुर
जरूर मिलते रोज, दीवानापन है
एक दूसरे के हाल पर रखे नज़र
जी कुछ नहीं बस, अपनापन है

न जाने कैसे मिले और प्यार हुआ
न एक दिन मिले तो सब अनमन है
अपने अपने परिवार के दायित्व लिए
प्यार ही है ना समझें कि पागलपन है।
विलुप्त न होने की हल्की गुहार
शब्दों की हो गयी सावनी फुहार
बूंदों ने राहों को जलमग्न किया
तथागत के कदमों ने मान ली हार

एक शब्द एक वाक्य कितने सशक्त
एक निर्णय में त्वरित हुआ सुधार
हठवादिता तोड़ी साधिका स्नेह से
हृदय में उमड़ भावनाएं बनी आधार

सच प्रेम अपरिभाषित रहा है हमेशा
प्यार में कहीं नहीं मिले प्रतिकार
एक शब्द एक वाक्य बदले निर्णय
अंग अंग चढ़ जाए फिर वही खुमार

ओ प्रेममयी स्नेहमयी लगे नई नई
गयी थी कहां अनसुनी रही पुकार
लो रुक गया झुक गया चुप भया
प्रीत पुनः जागृत प्रतीति की हुंकार।