मंगलवार, 16 नवंबर 2010

मुहब्बत ना नकारा जाये

दर्द भी दिल के दायर को खूब सजाये
बेकरारी बेख़ौफ़ बढ़ती ही चले जाये
हवाओं की नमी में कैसा यह संदेसा
टीस उभरे और टपकने को मचल जाये

अंजुरी भर लिए खुशिओं का एक एहसास

दिन खुले और रजनी में समाता जाये
याद सजनी की खुश्बू सी रही फ़ैल अब
दिल बेचैन लिए बस्ती में घुमाता जाये

जो मिले बस मुझको पल भर को मिले

ज़िन्दगी को कौन यह जुगनू बनाता जाये
अपनी चमक से मिली ना तसल्ली अभी
दर्द के दाम में कोई मुझको बहाता जाये

धूप भी अच्छी लगे छाँव का हो आसरा

जेठ दुपहर में जीवन ना अब गुजारा जाये
दर्द में आह के सिवा ना कुछ और मिले
मैं भी मजबूर मुहब्बत ना नकारा जाये.

कोयल पीहू-पीहू बोले

बोलो ना कुछ, अलसाया-अलसाया सा मन है
आओ करीब मेरे, सुनो यह मन कुछ बोले,
कितना सुख दे जाता है,पास तुम्हारा रहना
एक हसीन थिरकन पर,तन हौले-हौले डोले

और तुम्हारी सॉसो में लिपट,यह चंचल मन
गहरे-गहरे उतर, तुम्हारे मन से कहे अबोले,
और बदन तुम्हारा बहके,देह गंध मुस्काए
मेरी अंगुली थिरक-थिरक कर, पोर-पोर खोले

मुख पर केश जो आए, बदरिया घिर-घिर छाए
झूम-झूम अरे चूम-चूम,मेरी चाहत को तौले,
हॉथ कहीं तो श्वास कहीं,कहॉ-कहॉ क्या हो ले
छनक ज़िंदगी ताल मिलाए, कोयल पीहू-पीहू बोले

सोमवार, 15 नवंबर 2010

दिल

कहीं उलझ कर अब खो गया है दिल
खामोशी इतनी लगे कि सो गया है दिल
ख़ुद में डूबकर ना जाने क्या बुदबुदाए
नमी ऐसी लगे कि रो गया है दिल

मेरे ही ज़िस्म में बेगाना लग रहा
करूं बहाने तब कहीं मिलता है दिल
अधूरे ख्वाब,चाहतें अधूरी, दिल भी
अरमानी डोर से आह सिलता है दिल

अलहदा रहने लगा आसमान सा अब
सपना सजना के अंगना, अबोलता दिल
रखना किसी की चाह में नूर-ए-ज़िंदगी
बेख़ुदी में हर लम्हे को तौलता है दिल

यह कैसी प्यास कि बुझना ना जाने
यह कैसी आस कि तकता रहे दिल
यह कौन सी मुराद कि फरियाद ना करे
यह कैसा दुलार कि ना थकता है दिल. 

मंज़िल

मुझको मिली है मंज़िल, खुशियॉ मनाऊँगा
लम्हों को रोक लूँगा, और गीत गाऊँगा,
ऐसी भी चाहते हैं जो, मिलती नहीं दोबारा
चंदन की चॉदनी में, चंदा सजाऊँगा

धरती की चूनर में, आसमां चाहे लिपटना
तारों से लिपटकर के, सूरज को बुलाऊँगा
समंदर में सजाकर के, नयनों की दीपशिखा
सपनों की बातियों में, नई ज्योत जगाऊँगा

आख़िर में ज़िंदगी को, पहुँचना है उस पार
अंजुरी में भर विश्वास, इतिहास रचाऊँगा,
वक्त के काफिले से निकाल लूँगा, तुम्हें, मैं
वज़ीफा ख़ुद को देकर,  सबको सुनाऊंगा.

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 7 नवंबर 2010

अपने तलक ही रखना

अपने तलक ही रखना, कहीं ना बात निकल  जाए
है अपना यही राज, कहीं
ना  बात फिसल  जाए

लोगों के दरमियॉ,,खुली किताब का वज़ूद
क्या
एक ज़िल्द चढ़ाए रखना, कहीं ना झलक जाए

माना कि सूरज को, छुपाना है बहुत मुश्किल
झोंके से बचे रहना,कहीं बादल
ना निकल जाए

होता नहीं आसान, ज़ज्बातों से बच कर रहना
हलकी सी छुवन से, कहीं दिल
ना पिघल जाये

है हिम्मत और हौसला, अपनी राह पर चलना
एक दुनिया बनी है अपनी, कोई ना छल पाए.  

शबनमी बारिश

आज जब शाम से, तनहाई में मुलाकात हुई
रात ढलने से पहले, चॉदनी मेरे साथ हुई,
कुछ उजाले और कुछ अंधेरे से, मौसम में
डूबते सूरज से, सितारों की बरसात हुई.

मैं रहा देखता बस, बदलती इस तस्वीर को
चाहतें चुलबुली की, नज़रों से कई बात हुई,
शाम के झुरमुटों से, कुछ ऐसी चली हवा
ज़ुल्फें उड़ने लगी और ज़िंदगी जज्बात हुई.

कसमसाहट सी उठे, जिस्म तब पतवार लगे
इश्क कश्ती बहक, ना जाने किस घाट हुई,
यूँ ही अक्सर जब चहक पूछा करो मेरा हाल
गुल के शबनम सी, तबीयत की ठाठ हुई.

शाम के वक्त सा, चौराहा बन गया जीवन
रोशनी तो कहीं, अंधेरे से मुलाकात हुई,
किस कदर खामोश हो, देखता रहता है दिल
शबनमी बारिश जब, इश्क की सौगात हुई.

आँखें

बहुत सीखती रहती है ज़माने से आँखें
ढूँढती रहती नयी राह जमाने में आँखें

होठों पर बिखरी है, मुस्कराहट हरदम
दर्द कोरों मे छुपा लेती हैं, नटखट आखें.

बहुत से ख्वाब बिखरे हैं, सवालों को लिए
जवाब ढूँढती है हकीकत में उलझी आँखें

भरी महफिल में, दिख रहे मशगूल लोग
उदासी को छुपा ना पाए, मटकती आखें.

रंगीन ऐनक  में, छुपाने की पुरजोर कोशिश
बात-बेबात बोल जाती हैं, सबकी आखें.

नज़र से नज़र चुराती हैं, यह चंचल आखें
नज़र से नज़र मिले करे, एक दंगल आँखें