मैं चाहूं लेख लिख भारमुक्त हो जाऊं
या तो पोर-पोर भाव कविता रच जाऊं
तुम ही कह दो प्रणय संवेदिनी इस बार
अबकी सावन को कैसे में और रिझाऊं
इस बयार में देखो तो कितनी बेचैनी
बूंदे हर लेती बन मादक शीतल पैनी
पौधे, परदे, लटें तुम्हारी जैसे लहराउं
अबकी सावन को कैसे मैं और रिझाऊं
जब देखूं तुम रहती काम में सदा व्यस्त
बदरा-धरती बाहें थामे लगते हैं मस्त
भावों से कहते रहती बात समझ न पाऊं
अबकी सावन को कैसे मैं और रिझाऊं।
धीरेन्द्र सिंह
25.07.2024
09.21
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