हल्के से छूकर दिल निकल गई
बहकती हवा थी या तेरी सदाएं
एक कंपन अभी भी तरंगित कहे
ओ प्रणय चल नयन हम लड़ाएं
महकती हैं सांसे दहकती भी हैं
चहकती भी हैं हम कैसे बताएं
हृदय तो झुका है प्रणय भार से
आए मौसम कि अधर कंपकंपाएँ
देह को त्यागकर राग बंजारा हो
चाह की रागिनी तृषित तमतमाए
रूह की आशिकी अगर हो गयी
साधु-संतों की टोली बन गुनगुनाएं।
धीरेन्द्र सिंह
20.06.2025
05.26
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