मन डैना उड़ा भर हुंकार
बचा ही क्या पाया संसार
तिल का ताड़ बनाते लोग
जीवन तो बस ही उपभोग
उपभोक्ता की ही झंकार
बचा ही क्या पाया संसार
कलरव में वह संगीत नहीं
हावभाव में अब गीत नहीं
निज आकांक्षा ही दरकार
बचा ही क्या पाया संसार
कृत्रिम प्यार उपभोग कृत्रिम
एकल सब जीवन मिले कृत्रिम
परिवार का कहां है दरबार
बचा ही क्या पाया संसार
भाव बुलबुले व्यवहार मनचले
सोचें कौन है दूध धुले
शक-सुबहा नित का तकरार
बचा ही पाया क्या संसार
मन डैना उड़ता मंडराए
दूसरे डैने यदि पा जाएं
परिवर्तन की चले बयार
बचा ही क्या पाया संसार।
धीरेन्द्र सिंह
27,.04.2024
08.31
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