अहसान के दालान में
गौरैया का खोता है,
जेठ की धूप खिली
मन सावन का गोता है;
खपरैले छत छाई लतिकाएं
पदचिन्ह दालान भरमाएं
दृष्टि कहे बड़ा वह छोटा है
सूना पड़ा गौरैया खोता है;
फिर वही पाद त्राण अव्यवस्थित
कौन है व्यक्तित्व फिर उपस्थित
मन के हल से नांध तर्क जोता है
झूम रहा क्यों आज खोता है।
धीरेन्द्र सिंह
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