बुधवार, 10 जनवरी 2024

तुम में

 केशों में तुम्हारे शब्दों को सजाकर

भावनाओं की कंघी से केश संवारकर

कुछ गीत प्रणय के कर दूं तुम्हारे प्राण

आत्मा की आत्मा से नींव बनाकर


भावनाओं पर भावनाओं को बसाकर

तिनके सा बह चले जिंदगी नहाकर

इतनी आतुरता तो हुई न अकस्मात

क्या-क्या गए सोच एक तुमको चुराकर


मन से उठे गीत होंठ देने लगे शब्द

अंगड़ाईयों को यूं तनहाईयों में गाकर

तुमको ही लिपटा पाता शब्दों में सुगंध

एक मदहोशी की खामोशी में छुपाकर


यह प्रवाह प्रणय या व्यक्तित्व तुम्हारा

क्यों लगने लगा प्रीत तुम्हारा चौबारा

निवेदित नयन के आचमन कर लिए

तब से लगने लगा तुम में जग सारा।


धीरेन्द्र सिंह


10.01.2024

23.36

मंगलवार, 9 जनवरी 2024

विश्व हिंदी दिवस

 हिंदी विश्व दिवस

कौन मनाता सहर्ष

कागज का यह घोड़ा

हिंदी का कहां उत्कर्ष


एक शोर अनर्गल

कहता है चल

भाषा भाग्य विधाता

भाषा पर मचल


मोबाइल संचालन में

प्रौद्योगिकी आंगन में

सिर्फ जुड़ा बाजार

शेष आंग्ल छाजन में


कठिन है जगाना

अर्थ किसने जाना

योग्यता का क्या

जिससे न मिले खाना


हिंदी विश्व दिवस

मिले तुझे सुयश

अर्थ मिले अपार

मिले ना अपयश।



धीरेन्द्र सिंह

10.01.2024

12.52

सहन की महारानी

 हथेलियों की अंगुलियां उलझाना चाहता हूँ

तुम्हारे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ


बहुत हो छिपाती तुम अपनी कहानी

खुशियां लपेटे सहन की ऐ महारानी

तुम्हें तुमको तुमसे आजमाना चाहता हूँ

तुम्हाडे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ


जब भी करूं प्रश्न देती हो मुस्करा

अदा से कह देती मुझसा न मसखरा

राज दिल के तुम्हारे मांजना चाहता हूँ

तुम्हारे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ


बड़ी ढीठ हो कहते-कहते रुक जाती

धुआं फैल जाता न जलती है बाती

दिए मन के तुम्हारे लौ सुहाना चाहता हूँ

तुम्हारे दर्द को मैं यूं पहचानना चाहता हूँ।


धीरेन्द्र सिंह

10.01.2024


06.14

चली गई

 कौन जाने कौन सी बला टल सी गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


सुबह होते ही व्हाट्सएप पर झंकार

प्रीतमयी संवेदना का आदर सत्कार

नित नए अंदाज चाहे बातें भी नई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


मैंने नहीं मेरे घर ने भी दिया दुत्कार

हिम्मती थी वह प्रतिदिन की अभिसार

चेतना में वेदना की संवेदना लड़ी गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


वर्ष तक किया उसकी चंचलता पर वार

इधर-उधर फुदकने से मानी ना हार

एक संग कई को घुमाती गली गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई


अब मस्तिष्क मुक्त सजाए निस सर्जनाएं

साहित्य में घटित वही भाव लिखते जाएं

पकड़ ली, जकड़ ली लहर थी डंस गई

भाग्य का सहारा था एकदिन चली गई।


धीरेन्द्र सिंह

09.01.2024


18.56

सोमवार, 8 जनवरी 2024

मालदीव हो गए

 कैसे कहें वह आत्मिक सजीव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


भव्यता में सम्मिलित अभिनव योगदान

अभिव्यक्तियों में फूंके मिल चेतना प्राण

विवादखिन्नता में भ्रमित परजीव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


पहले था समर्पण प्राप्त करता अनुराग

लक्षदीप सा गूंजा और हो गया विवाद

झूठे गुरुर में आधार निर्जीव बो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


उपकार और सम्मान में हो मदांध

सोचकर बढ़े है सशक्त दूजा कांध

 देखते ही देखते वह अतीत हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए


यह था सतत प्रयास उसी राह लौट आएं

पहले की तरह उन्मुक्त होकर खिलखिलाएं

सोशल मीडिया छोड़ रिक्त नींव हो गए

सहयोग था प्रचुर पर मालदीव हो गए।


धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024


22.34

ना मानें

 तृषित है अधर मगर रीत न्यारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


यह रचना नहीं एकल सद्प्रयास

रहे दो हृदय एक-दूजे के निवास

बोया कोई काटे जबर तरकारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


ना बोलें रहें चुप पूछें जो कुछ

क्या प्रणय प्रवृत्ति होता है गुपचुप

करें विरोध खाएं कसम महतारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


यह तृष्णा अजब कई लोग बेसमझ

स्व में ही सरोवर पर लहर की अरज

स्वीकारना ही है क्या आत्म आरी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी


बहकने भटकने की नव डगर है

कहो और कितनों पर रखे नजर है

वही संग हो जो उमंग प्रीतकारी

ना माने हैं वह रचित प्रीत क्यारी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

06.31

रविवार, 7 जनवरी 2024

छोरी

 चाहत की इतनी नहीं कमजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


गर्व के तंबू में तुम्हारा है साम्राज्य

चापलूसों संग बेहतर रहता है मिजाज

सत्य के धरातल पर क्षद्मभाव बटोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


उम्र कहे प्रौढ़ हो, किशोरावस्था लय है

जहां भी तुम पहुंचो, तुम्हारी ही जय है

तुम हो तरंग बेढंग की मुहंजोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


राह अब मुड़ गयी इधर से उधर गयी

झंकृत थी वीणा अब रागिनी उतर गयी

सर्जना के शाल ओढ़ाऊँ न सिंदूरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी


आत्मा से आत्मा का होता विलय

तुम ढूंढो आत्मा में दूजा प्रणय

सुप्त यह गुप्त, निरंतर है लोरी

क्यों आऊं मैं तुम्हारे पास छोरी।



धीरेन्द्र सिंह

08.01.2024

08.48