प्रीत तुम्हें प्रतीति बना न सकी
रीत तुम्हें अतिथि बना न सकी
एक हवा का झोंका था गुजर गया
नीति तुम्हें नियति बना न सकी
तुम लपट लौ सा आकर्षण लिए
आंच हवन की जता न सकी
कामनाएं मंत्र सी होती रहीं उच्चारित
वेदिका सा तुमको सजा न सकी
कौन जातक बना याचक है रहस्य
उपासना प्रणय को जगा न सकी
आत्माएं दोनों की थी हृदय दूर
आराधना भजन को पगा न सकी
उस अवधि की गांठ बंधती खुलती
स्मृतियों की डाल लचका न सकी
न जाने कब कुहूक जाती कोयल
यादें मुड़ती रहीं पर भटका न सकीं।
धीरेन्द्र सिंह
24.10.2024
10.10
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