मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

2976 नारी देह

 (बस अड्डा, रेलवे स्टेशन, महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थलों पर बिखरे पेन ड्राइव को लोगों ने उठाया और देखा तो जो पाया रचना में उल्लिखित है। सूचना आधार : "आज तक" दिनांक 30.04.2024 का "ब्लैक एंड व्हाइट" कार्यक्रम।)


पेन ड्राइव वीडियो की सत्यता है लंबित

66 का पिता 35 का बेटा करें अचंभित


पिता-पुत्र दोनों करें नारी दैहिक शोषण

आस्चर्य कि जनता हितों का करें पोषण

जनप्रतिनिधि कैसे हुए, चुम्मा चुम्बित

66 का पिता 35 का बेटा करे अचंभित


क्या शक्ति का स्वरूप है देह उद्दंडता

प्रभावित नारी की कौन सुने दुखव्यंजना

वर्चस्वता किस तरह करे नारी गुम्फित

66 का पिता 35 का बेटा करे अचंभित


प्रज्जवल रेवन्ना का ड्रायवर कार्तिक

नारी देह शोषण, देखा हुआ जब अधिक

पेन ड्राइव कैद कर बांटा वासना क्रन्दित

66 का पिता 35 का बेटा करे अचंभित


वीडियो में है 2976 नारी देह का मर्दन

पुरुष की शक्ति का बेलगाम क्रूर नर्तन

मीडिया बतला रही हूं लूटें देह दम्भित

66 का पिता 35 का बेटा करे अचंभित


संदेशखाली से वृहद यह देह मर्दन

विकृत वासना का कैसा यह नर्तन

दबंगता से क्या बलात्कार है समर्थित

66 का पिता 35 का बेटा करे अचम्भित


धन्य हो ड्राइवर कार्तिक अति संस्कारी


नारियों के क्रंदन को वीडियो में उतारी

पौरुषता के जीवंत प्रमाण हृदय स्पंदित

66 का पिता 35 का बेटा करे अचंभित।


धीरेन्द्र सिंह

01.05.2024

10.25

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

गर्मी

 तन ऊष्मा, मन ऊष्मा कितनी सरगर्मी

वातायन बंद हुए घुडक रही है गर्मी


गर्म लगे परिवेश गर्म चली हैं हवाएं 

पेड़ों की छाया में आश्रित सब अकुलाएं

हे सूर्य अपनी प्रखरता को दें नर्मी

वातायन बंद हुए घुडक रही है गर्मी


वृक्ष कट रहे क्रमश जंगल भी उकताएं

जंगल अग्नि लपट में हरियाली मिटाएं

कितने कैसे रहें पनप प्रकृति अधर्मी

वातायन बंद हुए घुडक रही है गर्मी


कूलर मर्यादित एसी ही हाँथ बटाए

निर्बाधित गर्मी को यही मात दिलाए

मौसम भी करने लगा अब हठधर्मी

वातायन बंद हुए घुडक रही है गर्मी।


धीरेन्द्र सिंह


30.04.2024

10.36

रविवार, 28 अप्रैल 2024

दालचीनी

 अनुभूतियां अकुलाएं बुलाएं मधु भीनी

तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी


नवतरंग है नव उमंग है उम्र विहंग

जितना जीवन समझें उतना रंगविरंग

मुखरित हो अनुभूतियां ओढ़े चादर झीनी

तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी


अन्नपूर्णा स्थान है घर की रसोई

संग मसालों के दालचीनी भी खोई

क्षुधा तृप्ति निरंतर जग की कीन्ही

तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी


जुगनू सी जलती-बुझती हैं अभिलाषाएं

हृदय भाव का हठ किसको बतलाएं

स्व कर उन्मुक्त धरा सजल रस पीनी

तीखा, मीठा, गर्म सा मैं दालचीनी।


धीरेन्द्र सिंह

29.04.2024


09.24

तलाश

 आप अब झूमकर आती नहीं हैं

मौसम संग ढल गाती नही हैं

योजनाएं घर की लिपट गईं है

उन्मुक्त होकर बतियाती नहीं हैं


यहां यह आशय प्रणय ही नहीं

पर जगह बतलाएं प्रणय नहीं है

सैद्धांतिक, सामाजिक बंधन है

ढूंढा तो लगा आप कहीं नहीं हैं


हो गया है प्यार इसे पाप समझेंगी

सोशल मीडिया क्या पुण्यात्मा नही है

यह सोच भी मोच से लगे ग्रसित

प्यारयुक्त क्या मुग्ध आत्मा नहीं है


दूरियां भौगोलिक हैं मन की नहीं

क्या मन की भरपाई नहीं है

कविता है एक प्रयास ही तो है


क्या कोई ऐसी चतुराई नहीं है।


धीरेन्द्र सिंह

28.04.2024

11.04

शनिवार, 27 अप्रैल 2024

संसार

 मन डैना उड़ा भर हुंकार

बचा ही क्या पाया संसार


तिल का ताड़ बनाते लोग

जीवन तो बस ही उपभोग


उपभोक्ता की ही झंकार

बचा ही क्या पाया संसार


कलरव में वह संगीत नहीं

हावभाव में अब गीत नहीं

निज आकांक्षा ही दरकार

बचा ही क्या पाया संसार


कृत्रिम प्यार उपभोग कृत्रिम

एकल सब जीवन मिले कृत्रिम

परिवार का कहां है दरबार

बचा ही क्या पाया संसार


भाव बुलबुले व्यवहार मनचले

सोचें कौन है दूध धुले

शक-सुबहा नित का तकरार

बचा ही पाया क्या संसार


मन डैना उड़ता मंडराए

दूसरे डैने यदि पा जाएं

परिवर्तन की चले बयार

बचा ही क्या पाया संसार।


धीरेन्द्र सिंह

27,.04.2024

08.31

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

देह की बात

 देह की बात नहीं, दिल के बहाने

छुपाकर भाव लिखे जा रहे तराने


कोई कहे खुलापन अश्लील भौंडापन

कोई कहे देह वातायन है सघन

देह वलय तरंगित ताकते मुहाने

छुपाकर भाव लिखे जा रहे तराने


गुड टच बैड टच प्री स्कूल बताए

मच-मच देह क्रूरता न रुक पाए

प्रेम कहां प्यार कहां विक्षिप्त मनमाने

छुपाकर भाव लिखे जा रहे तराने


दो पंक्ति चार पंक्ति काव्य रचना

देह की उबाल को प्यार कह ढंकना

प्यार रहे मूक, समर्पित स्व बुतखाने

छुपाकर भाव लिखे जा रहे तस्राने


एक प्रदेश हर लड़की का समवय भईया

सामाजिक बंधन में लड़की दैया-दैया

दूजे प्रदेश में लड़की झुकाए सब सयाने

छुपाकर भाव लिखे जा रहे तराने।


धीरेन्द्र सिंह


26.04.2024

16.39

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

भोर बहंगी

 भोर भावनाओं की ले चला बहंगी

लक्ष्य कहार सा बन रहा सशक्त

वह उठी दौड़ पड़ी रसोई की तरफ

पौ फटी और धरा पर सब आसक्त


सूर्य आराधना का है ऊर्जा अक्षय

घर में जागृति, परिवेश से अनुरक्त

चढ़ते सूरज सा काम बढ़े उसका

आराधनाएं मूक हो रहीं अभिव्यक्त


भोर की बहंगी की है वह वाहक

रास्ते वही पर हैं ठाँव विभक्त

कांधे पर बहंगी और मुस्कराहट

भारतीयता पर, हो विश्व आसक्त


भोर भयी ले चेतना विभिन्न नई

बहंगी वही पर धारक है आश्वस्त

सकल कामना रचे घर चहारदीवारी

कर्म भोर रचकर यूं करती आसक्त।


धीरेन्द्र सिंह

25.04.2024


12.15

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

सोहबत

 शब्दों से यारी भावनाओं से मोहब्बत

भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत


खयालों में खिलते हैं नायाब कई पुष्प

हकीकत में गुजरते हैं लम्हें कई शुष्क

लफ़्ज़ों में लज्जा अदाओं का अभिमत

भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत


वक़्त बेवक्त मुसलसल जिस्म अंगड़ाईयाँ

एक कसक कि कस ले फ़िज़ा अमराइयाँ

वह मिलता है कब जब होता मन उन्मत्त

भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत


जब छुएं मोबाईल तब उनका नया संदेसा

लंबी छोटी बातों में अनहोनी का अंदेशा

कितना भी संभालें हो जाती है गफलत

भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत


बेफिक्र बेहिसाब मन डूबे दरिया-ए-शवाब

इश्क़ की सल्तनत पर बन बेगम, नवाब

एहसासों की सांसें झूमे सरगमी अदावत

भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत।


धीरेन्द्र सिंह


24.04.2024

10.01

मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

प्रणय आगमन

 प्रणय पल्लवन का करें आचमन

सबको नहीं मिलता प्रणय आगमन


एक कविता उतरती है बनकर गीत

अपने से ही अपने की होती है प्रीत

मन नर्तन करे हो उन्मुक्त विहंगम

सबको नहीं मिलता प्रणय आगमन


हंसकर बोलना कुछ मस्ती मजाक

यही प्यार है लोगों लेते हैं मान

प्यार का मूल लक्षण ही है तड़पन

सबको नहीं मिलता प्रणय आगमन


हर बार हो छुवन करीब के कारनामे

कभी खुलकर हंसना कभी तो फुसफुसाने

यह है आकर्षण प्यार का धीमा खनखन

सबको नहीं मिलता प्रणय आगमन


एक साधक की साधना सा है प्यार

धड़कन में यार का अविरल हो खुमार

विचारों में संवेदनाओं का हो नमन

सबको नहीं मिलता प्रणय आगमन।


धीरेन्द्र सिंह


23.04.2024

18.01

सोमवार, 22 अप्रैल 2024

बहकते नहीं हैं

 दिल, दाग, दरिया दुबकते नहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं


प्रयासों से हरदम प्रगति नहीं होती

पहर दो पहर में उन्नति कहीं होती

ना जाने कब होता समझते नहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं


ना जाने कब कैसे उभरती मोहब्बत

दिल से दिल की अनजानी रहमत

अगर लाख चाहें यूं मिलते नहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं


अर्चना से अर्जित है यही क्या सृजित

हृदय कामनाओं में बसा कौन तृषित

समझने की चेष्टा, समझते कहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं


गरीबी, विवशता, लाचारी सब हैं शोषण

प्रणय में भी मिलता कहां सबको पोषण

हमें मत संभालो, हम लुढ़कते नहीं हैं

हृदय, हाय, हालत बहकते नहीं हैं।


धीरेन्द्र सिंह


22.04.2024

10.45

रविवार, 21 अप्रैल 2024

गुईंया

 कहां तक चलेगा संग यह किनारा

कहां तक लहरों की हलचल रहेगी

तुम्ही कह दो बहती हवाओं से भी

कब तक छूती नमी यह रहेगी


कहो बांध पाओगी बहती यह धारा

तरंगों पर कब तक उमंगें बहेगी

मत कहना कि वर्तमान ही सबकुछ

फिर वादों की तुम्हारी तरंगे हंसेगी


डरता है प्यार सुन अपरिचित पुकार

एक अनहोनी की शायद टोली मिलेगी

कहां कौन प्यार खिल रहा बारहमासी

मोहब्बत भी रचि कोई होली खिलेगी


अधर, दृग, कपोल रहे हैं कुछ बोल

एक मुग्धित अवस्था आजीवन चलेगी

कहीं ब्लॉक कर निकस जाएं गुईंया

मुड़ी जिंदगी तब निभावन करेगी।


धीरेन्द्र सिंह


21.01.2024

11.56

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

मचान

जैविक देह दलान है

मनवा का ढलान है

सरपट भागे आड़ाटेढ़ा

दूर लगे मचान है

 

करधन टूटी बर्तन टूटा

कौन मगन कौन रूठा

लगता भेड़ियाधसान है

दूर लगे मचान है

 

अक्कड़-बक्कड़ मुम्बई बो

छोड़ बनारस गए खो

भाषा वही बदला परिधान है

दूर लगे मचान है

 

जैविक जीव की लाचारी

मनवा गांव की बारी-बारी

धड़ ऊपर कमरधसान है


दूर लगे मचान है।

 

धीरेन्द्र सिंह

19.04.2024

17.35

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

नरम हो गए

 पचीसों भरम के करम हो गए

याद आए तो हम नरम हो गए


मन की आवारगी की कई कुर्सियां

अनगढ़ भावों की बेलगाम मर्जियाँ 

ना जाने किसके वो धरम हो गए

याद आए तो हम नरम हो गए


एक नए में नएपन की अकुलाहट

भव्यता चाह की हरदम फुसफुसाहट

न जाने कब हृदयभाव, बरम हो गए

याद आए तो हम नरम हो गए


सब जगह से किए ब्लॉक, वह तपाक

भोलापन न जाने, ब्लॉक टूटता धमाक

दूजी आईडी से मार्ग बेधरम हो गए

याद आए तो हम नरम हो गए


ऑनलाइन में होती कहां लुकी-छिपी

मूंदकर आंखें खरगोश सी पाएं खुशी

उनके किस्से भी आखिर सहन हो गए

याद आए तो हम नरम हो गए।



धीरेन्द्र सिंह

19.04.2024

16.21

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

छू लें हौले से

 आइए बैठकर चुनें रुई की सफेदी

धवलता अब मिलती कहां है

तमस में बत्तियों की टिमटिमाहट

सरलता रब सी मिलती कहां है


अपने घाव पर लें रख रुई फाहा

टीस औरों में दिखती कहां है

खुशियों के गलीचे के भाग्यवान

धूप इनको भी लगती कहां है


आप भी तो रुई सी हैं कोमल

घाव लगना नई बात कहां है

सब कोमलता के ही हैं पुजारी

पूछना अप्रासंगिक कोई घाव नया है


छू लें हौले से मेरे घाव हैं लालायित

मुझ सा बेफिक्र कहनेवाला कहां है

रुई की धवलता ले बोलूं, है स्वीकार्य

आपकी कोमलता सा नज़राना कहां है।


धीरेन्द्र सिंह


17.04.2024

09.08

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

शरीर

 हिंदी साहित्य में रूप का बहु कथ्य है

शरीर एक तत्व है क्या यही तथ्य है


जब हृदय चीत्कारता, क्या वह बदन है

तथ्य आज है कि, जीव संवेदना गबन


है

क्या प्रणय भौतिकता का निजत्व है

शरीर एक तत्व है क्या यही सत्य है


अन्तरचेतना में, वलय की हैं बल्लियां

बाह्यचेतना में, लययुक्त स्वर तिल्लियां

चेतना चपल हो, क्या यही पथ्य है

शरीर एक तत्व है क्या यही सत्य है


प्रणय का है रूप या रूप का है प्रणय

आसक्तियां चुम्बकीय या समर्पित विनय

व्यक्ति उलझा भंवर में क्या यह त्यज्य है

शरीर एक तत्व है क्या यही सत्य है।


धीरेन्द्र सिंह

15.04.2024

18.17

रविवार, 14 अप्रैल 2024

ऋचा

 

अभिव्यक्तियां करे संगत कामना

शब्द संयोजन है जिसकी साधना

 

जब पढ़ें शब्द लगे जैसे स्केटिंग

शब्द दिल खींचे सम्मोहन मानिंद

शब्दों की थिरकन पर लय बांधना


शब्द संयोजन है जिसकी साधना

 

शब्द हैं सुघड़ तो भाव भी सुघड़

शब्द सौंदर्य पर जाता दिल नड़

रूप सौंदर्य से शब्द सौंदर्य मापना

शब्द संयोजन है जिसकी साधना

 

अनेक ऋचा पर अनोखी है एक ऋचा

तादात्म्य शब्द का जहां हो न खिंचा

शब्दों के सरगम में शब्दों का नाचना

शब्द संयोजन है जिसकी साधना।

 

धीरेन्द्र सिंह

14.04.2024

14.32

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

अतृप्ता

 

कौन सी गली न घूमी है रिक्ता

वही जिसकी उपलब्धि है अतृप्ता

 

विभिन किस्म के पुरुषों से मित्रता

फ्लर्ट करते हुए करें वृद्ध निजता

अलमस्त लेखन चुराई बन उन्मुक्ता

वही जिसकी उपलब्धि है अतृप्ता

 

नई दिल्ली है इनका निजी शिकारगाह

प्रिय पुरुष मंडली की झूठी वाह-वाह

हिंदी जगत की बन बैठी हैं नियोक्ता

वही जिसकी उपलब्धि है अतृप्ता

 

एक दोहाकार दिल्ली का है अभिलाषी

एक “आपा” कहनेवाले भी हैं प्रत्याशी

एक प्रकाशक का जाल निर्मित संयुक्ता

वही जिसकी उपलब्धि है अतृप्ता

 

हिंदी जगत के यह विवेकहीन मतवाले

अतृप्ता ने भी हैं विभिन्न कलाकार पाले

कुछ दिन थी चुप अब फिर सक्रिय है सुप्ता

यही जिसकी उपलब्धि है अतृप्ता।

 

धीरेन्द्र सिंह

13.04.2024

19.10

मान लीजिए

 

अचरज है अरज पर क्यों न ध्यान दीजिए

बिना जाने-बुझे क्यों मनमाना मान लीजिए

 

सौंदर्य की देहरी पर होती हैं रश्मियां

एक चाह ही बेबस चले ना मर्जियाँ

अनुत्तरित है प्रश्न थोड़ा सा ध्यान दीजिए

बिना जाने-बूझे क्यों मनमाना मान लीजिए

 

लतिकाओं से पूछिए आरोहण की प्रक्रिया

सहारा न हो तो जीवन की मंथर हो क्रिया

एक आंच को न क्यों दिल से बांट लीजिए

बिना जाने-बूझे क्यों मनमाना मान लीजिए

 

शब्दों में भावनाओं की हैं टिमटिमाती दीपिकाएं

आपके सौंदर्य में बहकती हुई लौ गुनगुनाएं

इन अभिव्यक्तियों में आप ही हैं जान लीजिए

बिना जाने-बूझे क्यों मनमाना मान लीजिए।

 

धीरेन्द्र सिंह


13.04.2024

18.17

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

रसिया हूँ

 

जीवन के हर भाव का मटिया हूँ

हाँ मैं रसिया हूँ

 

प्रखर चेतना जब भी बलखाती है

मानव वेदना विस्मित सी अकुलाती है

उन पलों का प्रेम सृजित बखिया हूँ

हाँ मैं रसिया हूँ

 

चिन्हित राहों पर गतिमान असंख्य कदम

इन राहों पर सक्रिय संशय बहुत वहम

यथार्थ रचित एक ठाँव का मचिया हूँ

हाँ मैं रसिया हूँ

 


रस है तो जीवन में चहुंओर आनंद

आत्मसृजित रस तो है स्वयं प्रबंध

अंतर्यात्रा के पर्व निमित्त गुझिया हूँ

हाँ मैं रसिया हूँ।

 

धीरेन्द्र सिंह

13.04.2024

05.18

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

बेअसर हो गए

 मिले जबसे धुनसे बेअसर हो गए

आपकी भावनाओं के सहर हो गए


उर्दू सी जो चली तो ग़ज़ल हो गई

देवनागरी सी तुम फिर सजल हो गई

भावनाओं के मजमें ग़दर हो गए

आपकी भावनाओं के सहर हो गए


भाषाएं भी अपनी दखल की दीवानी

प्यार में तो उलझी मोहब्बत की कहानी

दीवानगी में गज़ब के सफर हो गए

आपकी भावनाओं के सहर हो गए


चाहतों के लिए खुशियों की चदरिया

कबीरा में कहते अनूठी है नगरिया

कैसे-कैसे मोहब्बत में अमर हो गए


आपकी भावनाओं के सहर हो गए।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2024

20.55

सोमवार, 8 अप्रैल 2024

रूठ गईं

 वह मुझसे गईं रूठ किसी बात पर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर


दिल भी बोले पर पूरा ना बोल पाए

मन के आंगन रंग विविध ही दिखाए

अभिलाषाएं हों मुखरित दिखते चाँद भर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर


वह नहीं तो क्या करें काव्य लिखें

उसकी बातों से लिपटकर बवाल लिखें

मन हर सुर में चीत्कारता है नाद भर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर


सीखा देता है जीवन जीने का तरीका

जीता है कौन जीवन जीने के सरीखा

अभिनय हो जाती आदत अक्सर बाहं भर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर।


धीरेन्द्र सिंह


09.04.2024

09.12

साहित्यिक चोरी

 चुरा ले गया कोई कविता की तरह

यह आदत नहीं अनमनी प्यास है

छप गयी नाम उनके चुराई कविता


हिंदी लेखन की हुनहुनी आस है


छपने की लालसा लिखने से अधिक

चाह लिखने की पर क्या खास है

इसी उधेड़बुन में चुरा लेते हैं साहित्य

यह मानसिक बीमारी का भास है


मित्र बोलीं फलाना समूह में हैं चोर

हिंदी साहित्य लेखन के श्राप है

कहने लगी साहित्य छपने में है लाभ

वरना यत्र-तत्र लेखन तो घास है


मित्र की बात मान दिया सम्मान

प्यास की राह में सबका उपवास है

मनचाहा मिले तो कर लें ग्रहण

चोरियां भी साहित्य में होती खास हैं।


धीरेन्द्र सिंह

08.04.2024

16.06

करिश्माई आप

 सघन हो जतन हो मगन हो

करिश्माई आप का गगन हो


भावनाओं की विविध उत्पत्तियाँ

कामनाओं की कथित अभिव्यक्तियां

आप सृजनकर्ता कुनकुनी तपन हो

करिश्माई आप का गगन हो


पर्वतों की फुनगियों के फूल हैं

सुगंधित सृष्टि आप समूल हैं

हृदय अर्चना की मृदुल अगन हो

करिश्माई आप का गगन हो


नहीं मात्र मनभाव प्रशस्तियाँ

बेलगाम होती हैं आसक्तियां

आपके सहन में अपनी लगन हो

करिश्माई आप का गगन हो।



धीरेन्द्र सिंह

08.04.2024

09.32

रविवार, 7 अप्रैल 2024

कागतृष्णा


याद उनकी आती क्यों है एकाएक

मन बहेलिए सा क्यों दौड़ पड़ा

काग तृष्णा देख आया सब जगह

अब तो मिलता ही नहीं जलघड़ा

 

रिश्ते के बिना भी रहे हमकदम

जाल कोई सा उनपर आन पड़ा

कोई कहे चतुराई थी सजग तभी

कोई कहे स्वार्थपूरित था ज्ञान खड़ा

 

शब्द सूखे लगने लगे थे भावरहित

और वहीं चाह थी रह तड़पड़ा

एक गया जग गया निज श्वास से

सब वह अपनी अभिव्यक्तियों में बड़बड़ा

 

घेरकर अपने वलय में करे कलह

टेरकर भी रच सका न गीत अड़ा

कागतृष्णा उड़ि चला उसी छोर फिर

तलहटी में जल लिए हो घड़ा पड़ा।

 

धीरेन्द्र सिंह

07.04.2024

17.21

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

व्योम को नहलाएं

 आ समंदर बाजुओं में, व्योम ओर धाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


तृषित वहीं है व्योम, छल का है क्षोभ

साथ चलना उन्मत्त उड़ना, मेघ का लोभ

सागर में मेघ को, पुनः सकल मिलाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


धीर है, गंभीर है, विश्वास भरा तीर है

दृष्टि थम जाए जहां, ऐसा वह प्राचीर है

बदलियों की चंचलता, आसमान भरमाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


सूर्य की तपिश में व्योम की कशिश

वाष्प से बदली, व्योम में ही रचित

व्योम ने तराशा उसे, बिन बोले बरस जाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


मेघ, बदली, बादल एक, हैं श्वेत-श्यामल

जब धरा की प्रीत जागे, गरजें-बरसे पागल

ठगा हतप्रभ व्योम का दग्ध मन कुम्हलाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं।


धीरेन्द्र सिंह


04.04.2024

21.14

बुधवार, 3 अप्रैल 2024

फुलझड़ियाँ

 अधर स्पंदित अस्पष्ट

नयन तो हैं स्पष्ट

ताक में भावनाएं

कब लें झपट


जहां जीवंत समाज

दृष्टि छल कपट

चुहलबाजी में कहें

चाह तू टपक


इतने पर आपत्ति

व्यवहार न हो नटखट

ऐसे आदर्शवादी जो

गए कहीं भटक


अट्ठहास दिल खोल

अभिव्यक्ति लय मटक

जिंदगी की फुलझड़ियाँ

ऐसे ही चटख।



धीरेन्द्र सिंह

02.04.2024

21.32

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

देहरी

देहरी पहुंचा उनके, देने कदम आभार
समझ बैठी वह, आया मांगने है प्यार

ठहर गया वह कुछ भी ना बोला
नहीं सहज माहौल प्रज्ञा ने तौला
फिर बोली क्यों आए, खुले ना द्वार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

कैसे बोलें क्यों बोलें देहरी की वह बात
नीचे भागी-दौड़ी आयी थी ले जज्बात
उसी समन्वय का करना था श्रृंगार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

उसकी निश्चल मुद्रा देख, बोली भयभीत
जाते हैं या दरवाजे को, बंद करूँ भींच
वह मन ही मन बोला, देहरी तेरा उपकार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

क्या कभी याचना से प्राप्त हुआ है प्यार
क्या कभी प्यार भी रहा बिन तकरार
वह गया था देहरी को करने नमस्कार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार।


धीरेन्द्र सिंह
02.04.2024
13.17

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

गांव

 सूनी गलियां सूनी छांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


युवक कहें है बेरोजगारी

श्रमिक नहीं, ताके कुदाली

शिक्षा नहीं, पसारे पांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


खाली खड़े दुमंजिला मकान

इधर-उधर बिखरी दुकान

वृक्ष के हैं गहरे छांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


भोर बस की ओर दौड़

शहर का नहीं है तोड़

शाम को चूल्हा देखे आंव

पिघल रहे हैं सारे गांव


वृद्ध कहें जीवन सिद्ध

कहां से पाएं दृष्टि गिद्ध

घर द्वार पर कांव-कांव

पिघल रहे हैं सारे गांव


भागे गांव शहर की ओर

दिनभर खाली चारों छोर


रात नशे का हो निभाव

पिघल रहे हैं सारे गांव।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2024

18.30