जाने कितना झूमता ब्रह्मांड है
मस्तिष्क भी तो सूर्यकांत है
ऊर्जाएं अति प्रबल बलिहारी
भावनाएं इसीलिए आक्रांत है
दीख रहा जो दीनता का प्रतीक
पार्श्व में तो व्यक्ति संभ्रांत है
वेदनाएं रहीं लपक ले उछाल
अर्चनाएं सभी होती सुकांत है
लाभ, अहं, प्रसिद्धि लोक गुणगान
सदा सजग भाव तुकांत है
छल रहे, छंट रहे छलकते अपने
मत कहिए हाल यह दुखांत है
क्षद्मवेशी खप जाते सहज पकड़ा जाए
कुरीतियां ही रीतियाँ नव सिद्धांत है
पढ़ चुके कौन जाने कितना असत्य
लिख रहा जो जाने कैसा दृष्टांत है।
धीरेन्द्र सिंह
10.11.2025
02.29