सोमवार, 30 सितंबर 2024

शब्द

 शब्दों में भावनाओं की है अदाकारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी


किस तरह के अक्षरों से शब्द बनाए

किस तरह के शब्दों से हैं भाव रचाएं

सत्य कुछ असत्य बस शब्द चित्रकारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी


बहुत श्रम लगता है शब्द को पकाना

बहुत कौशल चाहिए भाव शब्द सजाना

तब सजती रचना भर पाठक अंकवारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी


दिल कहे दिमाग तौले शब्द तैरते हौले

भाव गूंथते शब्द थिरकते कथ्य बिछौने

अभिव्यक्त बन कुशल हो बहुअर्थ धारी

पढ़ा जाए शब्दों में वह बतियां सारी।


धीरेन्द्र सिंह

30.09.2024

17.47, पुणे




रविवार, 29 सितंबर 2024

ऐ सखी

 ऐ सखी ओ सखा प्रीत काहे मन बसा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा


इतना हूँ जानता जो जिया मन लिखा

बेमन है जो लिखे खुद कहां पाते जीया

जीतना कहां किसे मीठे ऐंठन में कसा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा


नित्य लेखन प्रक्रिया हुई ना ऐसी क्रिया

कथ्य की वाचालता भाव उभरी कहे प्रिया

मनोभाव आपके भी दर्शाते क्या ऐसी दशा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा


असभ्य ना अशिष्ट समझें शब्द यहां फंसा

झूमने लगे क्यों कोई बिन वजह बिन नशा

अपनी गोल से पूछता बेवजह क्यों हंसा

आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा।


धीरेन्द्र सिंह

29.09.2024

14.09


शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

त्रिनेत्र

 या तो आंख मूंद लें या देखें अपना क्षेत्र

पढ़ लिए समझ लिए अब खोलना त्रिनेत्र


छः सात वर्ष की बच्चियां यौन देह क्रूरता

बालिका क्या समझे कैसे कौन है घूरता

कवि की रचना में काम अर्चना ही क्षेत्र

पढ़ लिया समझ लिया अब खोलना त्रिनेत्र


कौन कहां कैसे उलझाए, रहा है नया खेल

भोलापन सीखने के क्रम में, जाता बन भेल

कर्म अब विधर्म होकर सत्कर्म को करें अनेत्र

पढ़ लिया समझ लिया अब खोलना त्रिनेत्र


देह के सिवा भी हैं जीवन की कई समस्याएं

सब कुछ पा लेने को जबरन देह ही बिछा जाए

क्षद्म अब श्रृंगार, है कलुषित सौंदर्य अक्षेत्र

पढ़ लिया समझ लिया अब खोलना त्रिनेत्र।


धीरेन्द्र सिंह

27.09.2024

14.45



गुरुवार, 26 सितंबर 2024

वशीभूत

 मन है बावरा, मन उद्दंड है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है 


प्रत्येक मन में अर्जित संस्कार

प्रत्येक जन में सर्जित संसार

सबकी दुनिया अपना प्रबंध है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है


शक्ति का वर्चस्व ना संविधान

खुदगर्जियाँ तो संविधान लें तान

भ्रष्टाचार भी आक्रामक महंत है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है


वर्तमान सहेजना भी है दायित्व

व्यक्ति संभाले सामाजिक व्यक्तित्व

अपराध घटित होने पर दंड है

तन वशीभूत, उन्मादी प्रचंड है।


धीरेन्द्र सिंह

27.09.2024

07.56




सोमवार, 23 सितंबर 2024

देहरुग्ण

 ना समझ आने का दुख तो बहुत है

जब वह अपनी कुंठाएं बताए, क्या करूँ

ऑनलाइन समूह में यौन उन्माद मिलता

प्यार विकृत घिनौना चिढ़ाए, क्या करूँ


चंद हिंदी समूह ही साहित्य चांदनी भरे

अधिकांश समूह देह उन्मादी, क्या करूं

अनेक समूह ऐसे छोड़ता रहा हूँ मैं

महामारी सा लगें उभरने तो, क्या करूँ


कैसे लूं आंख मूंद इस महामारी से

नारी सौंदर्य हैं यह बिगाड़ते, क्या करूँ

ऐसे समूह प्यार को कुरूप घृणित बनाएं

प्यार देह तक हैं उलझाएं, क्या करूं


क्या करूं, क्या करूँ का जप छोड़ना पड़े

यौन मानसिक रुग्णता की, दवा करूं

प्रणय की वादियों में देह ही ना मिले

सुगंध अनुभूतियां खिलती रहें, छुवा करूं।


धीरेन्द्र सिंह

24.09.2024

09.52




रविवार, 22 सितंबर 2024

बाजू

 उन महकते बाजुओं में आसुओं की नमी

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं की हो कमी


बह गया उल्लास के चीत्कार में वह नयन

और मन उदास हो सूखता देखे है उपवन

खुरदुरी कभी लगे सूखी सी यह दिल जमीं

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं की हो कमी


श्रम करे, श्रृंगार करे घर का नित उपचार करे

भ्रम कहीं ना कोई रहे बाजुओं से सुधार करे

मुस्कराता घर मिले जिसमें पुलकित हमीं

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं में हो कमी


भोर होते चाँद निखरे तक हैं पुरजोशियाँ

रच दिया रख दिया घर लोग की मनमर्जियाँ

और समझें उन बिन कोई लगती ना कमी

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं में हो कमी।


धीरेन्द्र सिंह

23,.09.2024

10.28

अनकही

अनकही बात भी करती बतकही

रहने दें तो क्या न होगी कहाकही

उन आँखों के सवाल मचाते धमाल

इन आँखों के जवाब थे कब सही


यूं ना हमको अब आप भरमाइए

मानता हूँ आप जो कहें है सही

आपके नयन करें चतुर्दिक गमन

मनन करते-करते रह गए हैं वहीं


और कितने हैं नयन भरे सवाल

दिल को कब तक रखें प्रश्न बही

अनकही बात रचे कब तक नात

स्पंदित भाव सघन झंकृत हो सही।


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2024

17.36



शनिवार, 21 सितंबर 2024

जीवंत रचना

उन्होंने किया अभिव्यक्त

जीवित हूँ मैं

श्वासों की गतिशीलता

मेरे जीवित होने का प्रमाण है,

फूल सी खिलखिलाती हूँ

तुम्हारी और मेरी दृष्टि में

बस इतना अंतर है

मैंने तुम्हारे होने में

सुगंधित खिलखिलाते

फूल रूपी अस्तित्व को

स्वीकारा है

और तुमने

मेरी जली भूनी हड्डियों में;


आश्चर्य हुआ पढ़कर

क्योंकि

यह हमेशा दर्शन, जीवन पर

लिखती हैं

किन्तु आज विषय किस काज,

आंदोलित हो जाता है पुरुष

हो जाती है नारी जब मुखर

तब बौखलाया पुरुष

करता है बात

शालीनता और मर्यादा की

तब मुस्करा उठती है नारी;


उन्होंने आज क्यों लिखा

अस्तित्व और अस्थि

इसी चिंतन में लगा

है नारी समग्र सृष्टि

और पुरुष पर्वत

जिसपर सृष्टि विस्तृत, उन्मुक्त

गा रही है गीत

कोमलतम संवेदनाओं संग

भर पर्वत में तरंग

अपनी पुष्प वाटिकाओं संग

नहीं कह पाता कुछ

कहां पाए पर्वत

नारी मन।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2024

18.07




शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

उदासी

 उदासी

जल में गिरे

उस कंकड़ की तरह है

जिसमें नहीं उठती तरंगे

गिरता है कंकड़ और 

डूब जाता है ढप ध्वनि संग,

उदासी वही ढप है,



डूबता, डूबता, गहरा और गहरा

उदासी की प्रवृत्ति

या कंकड़ की प्रकृति ?

पसरा सुप्त सन्नाटा

बजाते रहता है पार्श्वधुन

उदासी का और

कुछ कहने को उकताता

नयन,


प्रेमिका, पत्नी, परिवार,

पति, प्रेमी हैं प्रमुख,

प शब्द से आरंभ प्रथा भी

है सहेजे उदासी

शेष क्या है बाकी ?,

प्रथाओं की चलन में

यदि भावनाओं का हो दहन

अब कौन करता सहन !

कहता लेंगे खबर खासी

आ जाती तब उदासी,


हाँ है मन उदास

कोई “प” है खास

दिए की भींगी जैसे बाती

ऐसे मिलती है उदासी,

शौर्य लिखूँ, मनमौजी बनूँ

असत्य ना लिखा जाए

उदासी है क्या करूँ ? 

सोचा कविता लिखी जाए।


धीरेन्द्र सिंह

20.09.2024

18.34



गुरुवार, 19 सितंबर 2024

कठिन शब्द

 क्यों लिखी जाती है कविता

कठिन शब्दों से,

सरल शब्द भी तो

कह देते हैं वही बात,

अक्सर उठता रहता है

कठिन शब्दों का संवाद;


कौन लिखता है

कठिन शब्द ?

रचनाकार ?

नहीं, लिखती है कविता

खुद की बहाती भावनाएं

शब्द स्वतः ही आ जाते हैं;


सरल शब्दावली में भी

होती हैं कविताएं, 

जब जैसा भाव

वैसे शब्द फुदक आएं,

कविता खुद को लिखती

कैसे कोई समझाए;


उठती हैं प्रचंड आंधियां

भावनाओं की तब

होती है वैचारिक हलचल

और रचनाकार संतुलन बनाता

करता है अभिव्यक्त

शंकर की जटा की तरह

करता नियंत्रित भावनाओं का

गंगाजल;


विकट होती है परिस्थिति

शब्द संगत चाहे अभिव्यक्ति

ऐसे प्रचंड भाव 

नहीं समेट पाते प्रचलित शब्द

तब कविता चुनती है

कम प्रयुक्त शब्द जैसे

चुनता है योद्धा दिव्यास्त्र

युद्ध की भीषणता में;


मत कहिए कठिन शब्द रचित

कविता का है रचनाकार दोषी,

रचनाकार तो भाव के वेग

और अभिव्यक्ति की आतुरता में

करता है संयमित अभिव्यक्ति 

सर्फिंग करते हुए 

कुशल खिलाड़ी सा।


धीरेन्द्र सिंह

19.09.2024

19.30




मंगलवार, 17 सितंबर 2024

चिरौरियाँ

 तत्व के महत्व की मनधारी मनौतियां

घनत्व में सत्व की रसधारी चिरौरियाँ

 

भावनाएं उन्मुक्तता के दांव चल रहीं

आराधनाएं रिक्तता की छांव तक रहीं

पुष्परंग सुगंध की भर क्यारी पंक्तियां

घनत्व में सत्व की रसधारी चिरौरियाँ

 

अस्तित्व के राग में चाहतों का फाग

व्यक्तित्व के निभाव में नातों की आग

तपिश तप खिल रहा कोई कहे घमौरियां

घनत्व में सत्व की रसधार चिरौरियाँ

 

कथ्य व्यक्त विमुक्त तथ्य कब निर्मुक्त

सुप्त गुप्त संयुक्त तृप्त तुंग तीरमुक्त

गूढ़ता लयबद्ध सुर ताल मिल औलिया

घनत्व में सत्व की रसधार चिरौरियाँ।

 

धीरेन्द्र सिंह

18.09.2024

16.15

सोमवार, 16 सितंबर 2024

विसर्जन

 डेढ़ दिन, पांच दिन, सात और दस दिन

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

शिल्पकार छोटी मूर्तियों में दिखाए कौशल

आस्थाएं घर-घर गूंजी होकर भाव विह्वल

अर्चनाएं संग समर्पित लंबोदर के अधीन

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

लालबाग राजा के अम्बानी हैं शीर्ष लगन

इच्छापूर्ति और मूक दो होते रहते दर्शन

अति प्रचंड जन सैलाब दर्शन प्रयास प्रवीण

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

मुंबई के सागर तट विदाई के भव्य मठ

आज सागर हिलोर हर्षित एकदंत देंगे मथ

भव्यता कहे अगले वर्ष हों जल्दी आसीन

गणेश वंदना विसर्जन परंपरा है प्राचीन।

 

धीरेन्द्र सिंह

17.09.2024

01.05



रविवार, 15 सितंबर 2024

टिप्पणी

 महक उठी सांसे सुगंधित लगे चिंतन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन


पोस्ट करते रचना तुरंत प्रतिक्रियाएं

जैसे मां सरस्वती के सभी गुण गाएं

अर्चना का प्रभुत्व रचनाएं निस वंदन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन


देह की दृष्टि है आत्मा जनित सृष्टि

व्यक्तिगत पहचान नहीं पर हैं विशिष्ट

शब्द आपके करते रचनाओं के अभिनंदन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन


सर्जना की दुनिया के आप भाव गीत

ऐसी भी तो होती है अभिनव सी प्रीत

साथ यह रचनाओं का नवोन्मेषी नंदन

शब्द पुष्प आपके टिप्पणी रूपी चंदन।


धीरेन्द्र सिंह

16.09.2024

09.16


अदब

 अजब है गजब है फिर भी सजग है

यह जीवन जी लेने का ही सबब है


एक जिंदगी को सजाने का सिलसिला

मित्रता हो गयी जो भी राह में मिला

हर हाल, चाल ढूंढती एक नबज़ है

यह जीवन जी लेने का ही सबब है


युक्ति से प्रयुक्ति का प्रचुर प्रयोजन

सूक्ति से समुचित शक्ति का संयोजन

सर्वभाव सुरभित स्वार्थ की समझ है

यह जीवन जी लेने का ही सबब है


भाषा, धर्म, कर्म का मार्मिक निष्पादन

बस्तियों का ढंग बदला कर अभिवादन

स्वार्थभरी कोशिश को कहते अदब हैं

यह जीवन जीत लेने का ही सबब है।


धीरेन्द्र सिंह

15.09.2024

23.28


शनिवार, 14 सितंबर 2024

अंगीठी

 कलरव कुल्हड़ मन भर-भर छलकाए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए


चित्त की चंचलता में अदाओं का तोरण

कामनाएं कसमसाएं प्रथाओं का पोषण

मन द्वार नित रंगोली नई बनाए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए

 

कलरव कुल्हड़ जब करता है बड़बड़

भाप निकलती है हो जैसे कि गड़बड़

एक तपिश एक मिठास दिन बनाए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए

 

एक लहर चांदनी सी लयबद्ध थिरकन

कोई कसर ना छोड़े दे मीठी सी तड़पन

कसक हँसत जपत नत प्रीत पगुराए

चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए।

 

धीरेन्द्र सिंह

15.09.2024

09.19

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

14 सितंबर

 राष्ट्रभाषा बन न सकी है यह राजभाषा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


देवनागरी लिखने की आदत न रही अब

भारत में नहीं हिंदी बनी विश्वभाषा कब

हिंदी दुकान बन कृत्रिमता की है तमाशा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


हिंदी को संविधान की मिली हैं शक्ति

स्वार्थ के लुटेरे हिंदी से दर्शाते आसक्ति

कुछ मंच ऊंचे कर बढ़ाते हिंदी हताशा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


झूठे आंकड़ों में उलझी हुई है यह हिंदी

फिर भी कहते हिंदी भारत की है बिंदी

बस ढोल बज रहे हिंदी दिवस के खासा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा।


धीरेन्द्र सिंह

14.09.2024

05.55




पुकारते रहे

 निगाहों से छूकर बहुत कह गए वह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


एक गुहार गुनगुनाती याचना जो की

सहमति मिली प्रसन्न धारा चल बही

टीसती अभिव्यक्तियां शेष जाती रह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


कुछ चुनिंदा वाक्य, लिए वही बहाने

असमर्थ कितने हैं, लग जाते बताने

चुप हो जाने को सोचते, गया ढह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


रसभरी बातें वह कहें, कह न पाएं

खामोश वह रहें और उनको सुनाएं

धीरे-धीरे खुलना प्रतीक्षा को सह

पुकारते रहे कर गए शब्दों से तह।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2024

22.24

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

कविता

 हर दिन

नहीं हो पाता

लिखना कविता,


चाहती है प्यार

एक उन्मादी आलोडन

कभी आक्रामकता

तो कभी सिहरन,


जलाती है फिर

संवेदनाओं की बाती

और उठते

भावनाओं के धुएं

बन जाते हैं कविता

लिपट चुनिंदा शब्दों से,


किसी दिन अचानक

कभी कंधे पर तो

कभी सीने पर

लुढ़क जाती है कविता

कुछ सुनने

कुछ गुनने,


बन सखी

रहती ऊंघाती

बन अनुभूति संचिता

हर दिन

नहीं हो पाता

कविता लिखना।


धीरेन्द्र सिंह

11.09.2024

08.15

मजबूरियां

 बिगड़ जाए बातें, यह कड़वी मुलाकातें

फिर कैसे कहे जिया, यह प्यार है

तर्क पर प्यार को बांधने की कोशिश

क्या यही प्रणय का उत्सवी त्यौहार है


एक बंधन का स्तब्ध बोले शांत क्रंदन

मन परिणय में यह कैसा अभिसार है

समझौता न्यौता घरौंदा आसीन लगे

कैसा का कैसी पर फैलता अहंकार है


डोर की टूटन को जोड़े है सामाजिकता

घोर रिक्तता में कैसी लहर हुंकार है

सलीके से छुपाने में हैं माहिर मजबूरियां

जी रहे हैं जीने का कैसा चलन धार है।


धीरेन्द्र सिंह

12.09.2024

20.56




मंगलवार, 10 सितंबर 2024

कहो तुम

 कहो सच कहोगी या कविता बसोगी

कोई दिन न ऐसा जो तुमतक न धाए

नयन की कहूँ या हृदय हद में रहूं

हो मेरी या समझूँ हो गए अब पराए

 

कई भावनाओं का होता निस मंथन

बंधन की डोर खुशी लिए लपक जाए

कोई एक बंधन हृदय सुरभित चंदन

करो अबकी कोशिश ह्रदय लग जाए

 

कहां डाल एकल कुहूक जाए कोयल

प्रतिबद्धता प्यार अब तो ना निभाए

छमकती है पायल बिराती है बिछिया

कहो मन ऐसे में क्यों न गुनगुनाए।

 

धीरेन्द्र सिंह

10.09.2024

19.42

सोमवार, 9 सितंबर 2024

हर पल

 ना कभी वक़्त-बेवक्त समय को ललकारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा

 

कभी कुछ खनक उठती है जानी-पहचानी

ललक धक लपक उठती जाग जिंदगानी

किसी कहानी ने अब तक ना है पुकारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा

 

बांध कविताओं में कुछ भाव कुछ क्षणिकाएं

दोबारा फिर ना पढ़ें गति आगे बढ़ते जाए

पलटकर देखने पर समय ने है कब संवारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा

 

सहज चलने सरल ढलने का चलन स्वीकार

किसी की खुशियां सर्वस्व ना कोई अधिकार

कहां कब मुड़ सका जिसे दिल ने है नकारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा।

 

धीरेन्द्र सिंह

09.09.2024

28.25