मंगलवार, 20 मई 2025

चाय या तुम

 झुकती लय टहनियां वाष्पित झकोरे

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे


एक घूंट चाय सा लगता है संदेशा

गर्माहट भरी मिठास अनुराग सुचेता

गले से तन भर झंकृत हो पोरे-पोरे

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे


अंगुली तप जाए अधर उष्णता दास

चाय रहती तपती करती चेतना उजास

रंगमयी कल्पनाएं संग चाय दौड़े-दौड़े

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे


हो जिद्दी बारिश, गर्मी हो या सर्दियां

हल्का हुआ विलंब छा देती हो जर्दियाँ

कोई न बीच हमारे चुस्कियां मोरे-मोरे

एक चाय सी हो लगती तुम भोरे-भोरे।


धीरेन्द्र सिंह

21.05.2025

11.01



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें