गुरुवार, 22 मई 2025

युद्ध

 लिख ही देता हूँ कलम ना थरथराती

नियमावली के अनेक प्रावधान है

मनुष्यता ही मनुष्यता का करे दमन

दर्द व्यंजित धरा का क्या निदान है


प्रेम की बोली या कि अपनापन कहें

प्यार की स्थूलता पर गुमान है

हृदय की समग्रता सूक्तियों में ढलें

जो सीखा है उसी का कद्रदान हैं


कौन अपना कौन पराया पहचानना

अपने ही तो पराजित मान करें

स्थानीय ऊर्जा का करते विलय

कीमतों पर बिक अभिमान करें


संघर्ष हर पग सब संघर्षशील

संघर्ष में युद्ध का कमान चले

घर में अपने बंग ढंग प्रबंध

कैसे कहें इसमें विद्वान ढले


काग चेष्टा बकुल ध्यानं समय

श्वान निद्रा का सम्मान करें

समय के अनुरूप सृष्टि भी चले

राष्ट्रभक्त हैं मिल राष्ट्रगान करें।


धीरेन्द्र सिंह

22.05.2025

16.12



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