लिख ही देता हूँ कलम ना थरथराती
नियमावली के अनेक प्रावधान है
मनुष्यता ही मनुष्यता का करे दमन
दर्द व्यंजित धरा का क्या निदान है
प्रेम की बोली या कि अपनापन कहें
प्यार की स्थूलता पर गुमान है
हृदय की समग्रता सूक्तियों में ढलें
जो सीखा है उसी का कद्रदान हैं
कौन अपना कौन पराया पहचानना
अपने ही तो पराजित मान करें
स्थानीय ऊर्जा का करते विलय
कीमतों पर बिक अभिमान करें
संघर्ष हर पग सब संघर्षशील
संघर्ष में युद्ध का कमान चले
घर में अपने बंग ढंग प्रबंध
कैसे कहें इसमें विद्वान ढले
काग चेष्टा बकुल ध्यानं समय
श्वान निद्रा का सम्मान करें
समय के अनुरूप सृष्टि भी चले
राष्ट्रभक्त हैं मिल राष्ट्रगान करें।
धीरेन्द्र सिंह
22.05.2025
16.12
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