तिथियों में कथ्य बंट गए
सत्य भी पथ्य में अंट गए
पहले सा ना रहा दिखावा भी
रिश्ते कैसे-कैसे सिमट गए
अब मोबाइल की है धड़कन
जब बजे उछल पड़े तड़पन
दूर-दूर से ही शब्द लिपट गए
रिसते कैसे-कैसे सिसक गए
छन्न से क्षद्म यह बनाती है
जिंदगी जैसे की आंधी-पानी है
बहते-बहते बेखबर अटक गए
किससे कहें कौन कहां भटक गए
पारिवारिक उत्सव में जुड़ाव कहां
फर्ज अदायगी है दिल उड़ाव कहां
जिंदगी चाही जिंदगी में लचक गए
हो रही भागमभाग ले लपक गए।
धीरेन्द्र सिंह
12.05.2025
09.57
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