बहुत डूबकर भी न हम डूब पाएं
डुबकी भटकी या बुलबुले सताएं
मचलती बहुत ज़िंदगी है दुलारी
खुदकी है मस्ती पर ना झूम पाएं
निगाहों के चितवन भी भ्रम फैलाएं
मुस्कराहट की लहरें तट ही दिखाएं
क्या आवधिक है जीवन आबंटित
खुदकी है मस्ती पर ना झूम पाएं
हृदय कामनाएं लगें बंदर सरीखी
इस डाल से उस डाल सफर रीति
है कोई बंधन आजीवन गुनगुनाए
खुदकी है मस्ती पर ना झूम पाएं
मजबूरी, विवशता या मोह आकर्षण
सब में है स्वार्थ प्रेम भी होता कृपण
प्यार धोखे में जीता हम कैसे बताएं
खुदकी ही मस्ती पर ना झूम पाएं।
धीरेन्द्र सिंह
01.06.2024
12.30
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें