तृषा की चीख को जल सुनता नहीं
जलाशय बन रहे कोई गिनता नहीं
बयानबाजी में चर्चित रही प्यास खूब
नमी आंखों की रोई कोई कहता नहीं
सावन ने मचाया शोर दे आश्वासन कई
पावन बूंद ना टपकी कहें समझा नहीं
नदियां भी गयी सूख खेती है पड़ी सूनी
पूजा अर्चनाएं बीती गगन बरसा नहीं
कई झंडों में हुई विभाजित यह बस्ती
तृष्णा तृप्ति व्याकुल कोई जंचता नहीं।
धीरेन्द्र सिंह
04.04.2023
18.14
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