एक अनुगूंज
मद्धम तो तीव्र
सत्य को कर आलोड़ित
यही कहती है,
धाराएं वैसी नहीं
जैसी दिखती
बहती हैं;
मौलिकता
या तो कला में है
या क्षद्म प्रदर्शन में
फिर व्यक्तित्व क्या है
परिस्थितियों के अनुरूप
मेकअप किया एक रूप
या बदलियों में
उलझा धूप;
पगडंडियों की अनुगूंज
खेत-खलिहान से होते
दूब पर कंटक पिरोते
गूंजती है मद्धम
तलवों की आह
दब जाती है,
क्या अब यही
जीवन थाती है ?
गूंज बन पुंज
हो रहा अनुगूंज
कोई रहा देख
किसी को रहा सूझ,
जिंदगी ठुमक कहती
मनवा मन से बूझ।
धीरेन्द्र सिंह
15.10.2024
09.26
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें