Nijatata काव्य

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

धर्मनिरपेक्ष

कभी अनुभव किया है आपने

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में

धर्म के स्पंदन,

होते हैं ऊर्जावान

नीतिवान

और सृष्टि संचयन में

निमग्न,


कभी देखा है आपने

धर्मों के धर्मपालक को

एक विशिष्ट रंग,

एक विशिष्ट ढंग,

एक अभिनव कार्यप्रणाली,

देते यथोचित उत्तर

यदि पूछे

कोई जिज्ञासू भक्त,


बदल दिए जाते हैं अर्थ

सार्थक अभिव्यक्तियों के,

चुपचाप बढ़ते पदचाप

और जतलाते हैं

वसुधैव कुटुंबकम को

विश्व जीतने का ख्वाब,

धर्म को दृढ़ता से

करना होगा स्थापित

अपनी परिभाषाएं,


अर्थ का अनर्थ न हो

अपने मन से क्यों अर्थ गढ़ो,

रोकता है धर्मनिरपेक्ष विचार,

नींव मजबूत है पर

होनी चाहिए सशक्त दीवार।


धीरेन्द्र सिंह

39.10.2025

19.33

अपने कदम

साथ कोई चलता नहीं, चले अपने कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीवन के अंकगणित में है जोड़ना-घटाना

लक्ष्य की चुनौतियों में प्रयास कष्ट घटाना

समझौतों की स्वीकार्यता कभी खुश तो सहम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


यदि बंधे नहीं मानव सहज न जी है पाता

एक भीड़ न हो परिचित जीवन लगे अज्ञाता

अपने को छोड़ सबसे जुड़ा लगे सशक्त कदम

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम


जीने की एक आदत को समझते हैं प्रायः प्यार

कितना चले कोई अगर छोड़ दे अपना पतवार

स्वार्थ अति महीन रूप में जाए पनपाते दहन

यह है मेरा वह चितेरा, हैं सुंदर सपने वहम।


धीरेन्द्र सिंह

30.10.2025

19.25



बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

जरूरी है

 सुनो प्यार करने के लिए जानना जरूरी है

सितारे भरे आकाश हेतु जागना जरूरी है

सुलग गयी हृदय में भाव कुछ नई खिली

उस भाव से भी भागना कहो क्या जरूरी है


तुमसे मुझे प्यार है कहना नहीं है दबंगता

प्यार कसकर छुपा लें यह कैसी मजबूरी है

हृदय के स्पंदन कर रहें आपका अभिनंदन

चीख चिल्लाकर कहना प्यार क्या जरूरी है


हाँ जो बंध गए हैं बंधनों में समाज खातिर

ऐसे लोग नहीं मानव चर्चा क्या जरूरी है

व्यक्ति स्वयं के स्पंदनों संग जी ना सके तो

स्वतंत्र व्यक्ति नहीं वह उसकी बात अधूरी है


चंचल नहीं प्रांजल नहीं आदर्शवादिता नहीं

जीवन की सहज कामनाएं भी जरूरी है

सहज व्यक्ति सा सीमाओं संग उड़ रहे हैं

आप संग उड़ें ना उड़ें नहीं यह मजबूरी है।


धीरेन्द्र सिंह

29.10.2025

20.26


मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

एक तुम

 चाहे तो जिंदगी समेट सब विषाद लें

चाहें तो बंदगी आखेट से प्रसाद लें

दर्द, दुख, पीड़ा की चर्चा समाज करे

चाहे तो हदबन्दगी में तुमसे उल्लास लें


व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी, पुरानी बात

प्रौद्योगिकी प्रमाणित जरूरी नहीं साथ लें

प्यार मनकों सा टूट रहा बिखर रहा बिफर

तृष्णा अपनी समझ परे फिर क्यों प्यास लें


चार लोग मिल गए उभर पड़ी वहां चतुराई

रंगराई की अंगड़ाई में तनहाई आजाद लें

तुरपाई की रीति निभाई बौद्धिक लुढ़कन

भौतिक ही यथार्थ का हितार्थ आस्वाद लें


कौन जिए उन्मुक्त घुटन की अनुभूतियाँ

एक तुम जिससे मनीषियों का नाद लें

सहज, शांत, सुरभित मिलने पर तुमसे

और कहीं भटकें तो परिस्थितियां विवाद दें।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2025

22.15


रविवार, 26 अक्टूबर 2025

पदचाप

जब हृदय वाटिका में गूंजे पदचाप तुम्हारे
टहनियां पुष्प की लचक अदाएं दिखलाती
कलियां खिल उठें मंद पवन सुगंधित चले
धमनियों में दौड़ पड़ो अलमस्त सी इठलाती

हृदय की धक-धक की पग लय जुड़ी थाप
सरगमी इतनी तुम कि धुन नई रच जाती
हृदय वाटिका झंकृत होकर झूमने लगता
पदचाप की छुवन अक्सर लगती मदमाती

आत्मा से आत्मा का प्यार अधूरा कथन है
देह से देह परिचय में नवरंग है झूम आती
आत्मिक परिणय की तुम हो जीवन संगिनी
हृदय वाटिका में बेहिचक नेह सी छा जाती।

धीरेन्द्र सिंह
27.10.2025
06.31

रिश्ते

 सूई की तरह चुभते हुए रिश्ते
खोखली मुस्कराहटों के किस्से
किस तरह बीच चलें अपनों के
कुछ तो अपने हों सबके हिस्से

घर, कुनबा वही स्थल पुरखों का
लोग बढ़ते गए लोग कहीं खिसके
खंडहर बन रहा है खानदानी घर
गांव खाली हवा गलियों में सिसके

सब के सब बस गए हैं पकड़ शहर
मिलना-जुलना भी जर्जर किस्म के
रिश्ता स्वार्थ बन गया है खुलकर
रिश्तेदारियां औपचारिक जिस्म के

यह परिवर्तन है स्वाभाविक दोष नहीं
यहां-वहां बिखरे सब अपने हित ले
एक घर में जितने हैं खुश रहें मिलकर
स्वार्थी रिश्तों में जान किस तिलस्म से।

धीरेन्द्र सिंह
26.10.2025
21.38


शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

मन उचटता है

 कल्पनाओं में वही सूरज उगता है

मन उचटता है


याद है प्रातः आठ बजे की नित बातें

ट्रेन दौड़ती स्टेशन छूटता है न यादें

मन बौराया वहीं अक्सर भटकता है

मन उचटता है


कैसे पाऊं फिर वही सुरभित सी राहें

कहां मिलेगी हरदम घेरे रसिक वह बाहें

कभी-कभी तड़पन देता आह उछलता है

मन उचटता है


अब भी बोलता मन है अक्सर भोर में

तुम क्या सुन पाओगी हो तुम शोर में

यादों की टहनी पर नया भोर तरसता है

मन उचटता है।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

07.11

पीयूष पांडेय

 शब्दों की थिरकन पर सजा भावना की आंच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


भारतीय विज्ञापन का यह गुनगुनाता व्यक्तित्व

सरल शब्दों में प्रचलित कर दिए कई कृतित्व

हिंदी को संवारे विज्ञापन की दुनिया में खांच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


हिंदी न उभरती न होती आज ऐसी ही महकती

विज्ञापन की हो कैसी भाषा हिंदी न समझती

जो लिख दिए जो रच दिए अमूल्य सब उवाच

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच


दशकों से हिंदी जगत में पीयूष की निरंतर चर्चा

इतने कम शब्दों में सरल हिंदी का लोकप्रिय चर्खा

आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा से हिंदी विज्ञापन दिए साज

पीयूष पांडेय लिखते जग मुस्कराते रहता बांच।


धीरेन्द्र सिंह

26.10.2025

05.41


शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

भक्ति भाव

भक्ति में डूबी वह बोलीं

हम कुछ दूरी रखते हैं

मैंने कहा जिसे मन चाहा

हम तो करीबी रखते हैं


धन्यवाद कर प्रणाम इमोजी

बोलीं भाव कदर करते हैं

पढ़कर रहे सोचते  हम

भक्ति किसे सब कहते हैं


उन्होंने कहा करीबी गलत

खुद पर कंट्रोल रखिए

भक्ति कंट्रोल संग हो कैसे

अचल हैं क्या जी, कहिए


भक्ति में अब भी लिंगभेद

पुरुष-स्त्री विभक्त रहिए

मन कहां वश में जानें

साधना और गहन करिए।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2025

18.41

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

प्रेम और प्यार

  ईश्वर की कामना की जितनी अभिलाषा
 मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा  

मंदिरों के विग्रह भक्ति, आस्था, समर्पण                                       जीव वहां जाता श्रद्धा देती स्नेहिल दर्पण
देवी-देवता से प्यार नहीं प्रेम सबल नाता
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा

प्रेम अति व्यापक अलौकिक अनुभूति है
प्यार अति सूक्ष्म लौकिक जन रीति है
आत्मसंवेदनाओं का है जो चपल ज्ञाता
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा

प्यार करते-करते प्रेम भी दीप्त हो जाता
प्रेम करते-करते लीन होना ही हो पाता
मानव से करो प्यार वही है सफल खासा
मानवीय प्यार की उतनी ही प्रबल आशा।

धीरेन्द्र सिंह
23.10.2025
18.56

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

सामर्थ्य

प्यार कहे बोल दे पर बोल भी नहीं पाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

हर गगन में चांद की अठखेलियाँ ही लगें
तारों के बीच भी बादल बहेलियां ही लगें
चांदनी की शीतलता हवा को भी भरमाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

तुम अतीत तुम व्यतीत तुम ही तो मेरे मीत
भावनाएं गुनगुनाती शब्द सज बनते हैं गीत
कौन तुमसे जुड़कर भी मुडकर बहक पाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए

तुम कब एक व्यक्तित्व में समा जानेवाली
तुम एक तरंग हो महत्व की दिया बाती
तुमको सोचे तुमको जिए तुमको ही गाए
सामर्थ्य सोया सा लगे जब प्यार हो जाए।

धीरेन्द्र सिंह
22.10.2025
00.10

सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

मझधार

पहले द्वार रंगोली और द्वार श्रृंगार
फिर दिया, पूजन भक्त भक्ति दुलार
लौ की दुनिया सज गई ऊर्जा लेकर
दिया हो सक्रिय निःशब्द देता आधार

कितनी पूजा किसने की ईश्वर जानें
आरती में किसका कितना लयधार
इन बातों से अलग सोचती आराधना
जनमानस का कितना कैसे हो सुधार

अपनी अभिव्यक्ति को पूर्ण कर चुका
लगता कुछ शेष नहीं रुकी वही पुकार
खड़ा हो गया सोचता नव ज्योति लिए
जबतक है जीवन खत्म कहां मझधार।

धीरेन्द्र सिंह
20.10.2025
21.39



रविवार, 19 अक्टूबर 2025

छोटी दीवाली

देहरी पर दिये की झूम रही लौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

शुभता भी शक्ति है दिव्य आसक्ति
शुभ्रता मनभाव लिये नव्य युक्ति
ठहरी क्रन्दिनी वंदिनी हस्त भरे जौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

छोटी दिवाली की रात्रि दीप पटाखे
ब्रह्मोस्त्र की खेप बुद्धि मीत सखा रे
सीमाएं रहें शांत सुखी ना टेढ़ी भौं
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव पौ

मेरे पड़ोसी मुस्लिम घर जलीं लड़ियाँ
निकलें बाहर मिल जलाएं फुलझड़ियाँ
अनेकता में एकता लौ को गुण सौ
प्रहरी घर भर दिये ऊर्जा नव लौ।

धीरेन्द्र सिंह
19.10.2025
21.41




अस्तित्व उदय

उदित होता अस्तित्व
होता हरदम सिंदूरी
उदित गोद में हो
या हो समय की दूरी

प्रसन्नता हो अपरम्पार
द्वार किरण मनधूरि
एक उल्लास मिले खास
एक तलाश हो पूरी

दीये की लौ नर्तन
बर्तन बजते बन मयूरी
दिवस प्रारम्भ ले आशाएं
परिवेश सजा है सिंदूरी

उदित हो जाना जीवन
सज्जित समुचित लोरी
प्यार कहीं आराधना भी
कामना होती तब पूरी।

धीरेन्द्र सिंह
19.10.2025
14.35




शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

धनतेरस

सांध्य बेला हो चुकी प्रकाश में बदले बेरस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


अत्यावश्क हुई खरीद भक्ति भाव अविरल

कथ्यों पर युग बढ़ चला होता भाव विह्वल

आस्था जीवन को मढ़ी हर पीड़ा कर बेबस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


समरसता की दृष्टि निरंतर होती विकसित

भारत भूमि इसीलिए जग करे आकर्षित

धन-धान्य सुख-वैभव की प्रसारित कर रस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस


दिया लौ द्वार से लेकर  घर के कोने-कोने

हर घर में खुशियां छलकाए नयन-नयन दोने

जो भी कामना आशीष देकर ईश्वर प्रेम बरस

पूजा-अर्चना घर-घर गूंजे कुहूका धनतेरस।


धीरेन्द्र सिंह

18.10.2025

20.06




शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

जगमगाते


जगमगाते दीपों की तैयारी है
झालरों में ज्योति अँकवारी है
बाती बनकर दीप में सज जाइए
ज्योतिपुंज प्रबल अति न्यारी है

भींग जाने दो दिया जल में अभी
कुम्हार कौशल आपकी बारी है
केवट चरण पखार पाए मुक्ति द्वार
दीपमालाएं सजें विश्वकारी हैं

स्वच्छ चहक किलके चहारदीवारी
ज्योतिपुंज प्रज्ज्वलन गुणकारी है
तमस दूर हो समझ में होए वृद्धि
उत्सवी परिवेश समृद्धिकारी है

देहरी की प्रथम लौ झूम धाए
दिया लिए प्रकाश चमत्कारी हैं
बाती बन आप दिए से जुडें तो
इससे बड़ा कौन हितकारी है।

धीरेन्द्र सिंह
17.10.20२5
19.35




गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

कुछ नहीं आता

व्यक्ति में बौद्धिक सक्रियता सोचे विद्व ज्ञाता
दिवाली हेतु सफाई में सुने कुछ नहीं आता

हर घर दीप पर्व नाते घर में करे साफ-सफाई
मैंने भी सोचा सहयोग देकर पाऊं खूब बड़ाई
रसोई को खाली करने में श्रमदान का इरादा
सहायिका की मदत की सुना कुछ नहीं आता

कांच के बर्तन घेरे रख दिए थे कई ढंग बर्तन
चादर बिछी थी खिसकी शोर संग किए नर्तन
कुछ कांच टूटा सुना ऐसा सहयोग किसे भाता
सहायिका की मदत की सुना कुछ नहीं आता

पेशेवर सफाई कर्मी लेकर घर पहुंचे संग समान
सीढ़ी अलावा चढ़ने को कुछ मांगे ऊंचा स्थान
झट रिवॉल्विंग चेयर दे बोला सब इससे हो जाता
पेशेवर की थी अस्वीकृति लगा कुछ नहीं आता

शाम के सात बजे दो घंटे से सिर्फ किचन सफाई
तीन बाथरूम अभी पड़े हैं समय दे रहा दुहाई
उत्साह में दर्शाया रसोई व्यवस्थित की जिज्ञासा
कौन सामान कहां रहेगा बोले कुछ नहीं आता

क्लीनिंग पेशेवर लगे बैठा सोचा संगी कविता
घर को रखे व्यवस्थित मात्र गृहिणी की रचिता
सात बजे रहे हैं लगे रसोई में दो सफाई ज्ञाता
इस दीपावली ने दिया संकेत कुछ नहीं आता।

धीरेन्द्र सिंह
16.10.2025
07.03
#स्वरचित
#Poetrycommunity
#kavysahity
#poemoftheday
#poetrylover
#public

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

विकल्पविकल्प

विकल्प जब अनेक हों
संकल्प प्रखर सम्मान रहे
रचनाएं तो मिले बहुत
लाईक, टिप्पणी मांग रहे


आहत

आहत होने के लिए
कोई व्यक्ति
नहीं चाहिए
प्रायः व्यक्ति
होता है आहत
स्वयं से,
कैसे?

संवेदनाओं के संस्कार
परंपराओं के द्वार
बना लेती हैं
अपना कार्ड आधार
संस्कारों का
शिक्षा का, दीक्षा का
और लगती हैं देखने
दृष्टि समाज को
अपने 
संस्कार आधार कार्ड से,

दूसरे का दर्द,
परिस्थिति
न समझ पाना
और हो जाना
नाराज
कुपित
दुखी
होकर आहत,
कभी सोचा
सामने व्यक्ति को
मिली क्या राहत ?
अपनी ही सोचना,
है न!

धीरेन्द्र सिंह
14.10.2025
11.36


रविवार, 12 अक्टूबर 2025

व्यक्तिवादी

व्यक्तिवाचक रचना से बिदक जाते हैं
साहित्य पाठक भी क्यों ठुमक जाते है 

आदर्शवादिता लगे उनकी धरोहर है
कैसे लेखन ऐसे में ना दहक पाते है 

प्रथम पुरुष में लिखना क्या गलत है
बेमतलब का मतलब लहक जाते हैं

चरित्र चाल कर रखने की चीज कहां
जो लिखते हैं चालकर लिख पाते हैं

एक दीवार तक लेखन को जोडनेवालों
जो लिखते हैं उसी भाव महक जाते है 

प्रणय रचना को प्रस्ताव समझना कैसा
क्यों रचना में व्यक्तिवादी झलक पाते हैं

भाव दबाकर लिखें आपातकाल है क्या
साहित्य रचते जो यथार्थ कुहुक जाते हैं।

धीरेन्द्र सिंह
13.10.2025
12.23

शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

एक कल्पना

में यदि हूँ कहीं
ढूंढो यहीं कहीं
कह रहा इसलिए
सुन लिया बतकही

मत पूछो मेरा पता
व्योम धरा है ज़मीं
यह स्व उन्माद नहीं
होती सब में कमी

रात्रि प्रहर में सोचना
चाहतों की है नमी
सोचता मन आपको
दिखती नहीं कभी।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.202
22.02

स्तब्धता

 प्रेम पगता है मगन मन मेरे
और तुम पढ़ रही मेरी कविता
शब्द में भावनाओं का मंथन
कब समझोगी हो तुम ही रचिता

तुम्हारे स्पंदनों में हूँ मन साधक
और तुम कल्पनाओं की संचिता
एक परिचित नाम ही बन सका
कभी क्या लगता हो तुम वंचिता

प्रणय के पालने में रहा झूल हृदय
तुम्हारी आभा की पाकर दिव्यता
पहल अब और कितना हो कैसे
आओ न मिल रचें कई भव्यता

नई अनुभूतियों पर धुन बने नई
राग तो तुम हो करो आलापबद्धता
तुम हवा सी गुजर जाती हो छूकर
बाद देखी हो क्या मेरी स्तब्धता।

धीरेन्द्र सिंह
11.10.2025
20.41
#स्वरचित
#Poetrycommunity
#kavysahity
#poemoftheday
#poetrylover



तटस्थ

तटस्थ हो घनत्व को सदस्य दीजिए
निजता है पल्लवित राजस्व दीजिए
गुटबंदियां चापलूसी में हैं सन रही
कितने छोड़ रहे साथ महत्व दीजिए

अपने में दम तो बातों का क्या वहम
कारवां में सब एक यह कृतित्व कीजिए
रिश्तेदारी की खुमारी है तब दुश्वारी
जब प्रियजन समूह हैं व्यक्तित्व दीजिए

प्लास्टर लगे उखड़ने किसका प्रभाव है
किसका प्रभुत्व है यह तत्व उलीचिए
कुछ ईंटें सरकी हैं बात हद में ही है
दीवारों की खनक रहे शुभत्व कीजिए

कुछ टूट रहा है कुछ छूट रहा है
क्या कुछ लूट रहा है संयुक्त कीजिए
निर्भीकता से बोलता साहित्य हमेशा
मर्जी आपकी भले अलिप्त कीजिए।

धीरेन्द्र सिंह
10.11.2025
17.16

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

देवनागरी

 एक सदाचार धारक व्यक्ति

अतिभ्रष्ट देश में जन्म ले

वह क्या कर पाएगा

तिनके सा बह जाएगा,

आश्चर्य

काव्य में उभरा

राजनीतिक नारा,

सभ्यता सूख रही

राजनीति ही धारा ;


हिंदी साहित्य भी

क्या राजनीति वादी है

सदाचार गौण लगे

राजनीति हावी है ;


कौन कहे, कौन सुने

अपनी पहचान धुने

समूह राजनीति भरे

मंच भी अभिमान गुने,

करे परिवर्तन

राजनीति करे मर्दन,

हिंदी उदासी है

नई भाषा प्रत्याशी है ;


देवनागरी लेखन की अंतिम पीढ़ी

अदूरदर्शी चिल्लाते हिंदी संवादी

भारतीय संविधान पढ़ लें तो

ज्ञात हो है हिंदी विवादित।


धीरेन्द्र सिंह

10.10.2025

19.19



गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

गमन

गमन


वादियां

यदि प्रतिध्वनि न करें

नादानियाँ

यदि मति चिन्हित न रखें

कौन किसे फिर भाता है

मुड़ अपने घर जाता है


मुनादियाँ

यदि अतिचारी हों

टोलियां

यदि चाटुकारी हों

कौन पालन कर पाता है

मौन चालन कर जाता है


जातियां

यदि पक्षपात करें

नीतियां

यदि उत्पात करें

कौन सहन कर पाता है

मार्ग गमन कर जाता है।


धीरेन्द्र सिंह

10.10.2025

11.50




कोहराम

कोहराम है जीवन आराम कब करें

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें 


सब ठीक है ईश्वर की कृपा बनी है

कैसे कहे मन की अपनों में ठनी है

विषाद भरा मन अधर क्षद्म मद भरे

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें


अभिभावक, दम्पत्ति भी करें अभिनय

सामाजिक दायरै में दिखावे का विनय

संतान देख परिवेश उसी ओर डग भरें

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें


अपवाद कभी भी नियम नहीं होता

मुक्ति कहां देता कलयुग का गोता

वैतरणी कब मिलेगी है जग डरे

मुस्कराएं भी ना क्यों यह हद करें।


धीरेन्द्र सिंह

19.12

09.10.2025



#कोहराम#मुस्कराएं#दम्पत्ति#वैतरणी


बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

तृष्णा

आपके व्यक्तित्व में ही अस्तित्व

निजत्व के घनत्व को समझिए

अपनत्व का महत्व ही तो सर्वस्व

सब कुछ स्पष्ट और ना उलझिए


प्रपंच का नहीं मंच भाव जैसे संत

शंख तरंग में भाव संग लिपटिए 

हृदय के स्पंदनों में धुन आपकी

निवेदन प्रणय का उभरा किसलिए


आप ही से क्यों जुड़ा मन बावरा

दायरा वृहद था आपको जी लिए

आप समझें या न समझें समर्पण

अर्पण कर प्रभुत्व को तृष्णा पी लिए।


धीरेन्द्र सिंह

09.10.2025

06.35

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

मन

 मन की अंगड़ाईयों पर मस्तिष्क का टोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


तरंगों की चांदनी में प्रीत की रची रागिनी

शब्दों में पिरोकर उनको रच मन स्वामिनी

नर्तन करता मन चाहे बजे प्रखर हो ढोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


अभिव्यक्त होकर चूक जातीं हैं अभिव्यक्तियाँ

आसक्त होकर भी टूट जाती हैं आसक्तियां

यह चलन अटूट सा लगता कभी बस पोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल


यह भी जाने वह भी माने प्रणय की झंकार

बोल कोई भी ना पाए ध्वनि के मौन तार

कहने-सुनने की उलझन मन का है किल्लोल

क्या उमड़-घुमड़ रहा अटका मन का बोल।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2025

21.26

#मन#चांदनी#उमड़-घुमड़#प्रणय#किल्लोल

सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

अभिनय

 अभिनय


अपूर्णता सुधार में सर्जक बन क्षेत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


हम सब स्वभावतः अभिनय दुकान हैं

जितना अच्छा अभिनय उतना महान है

कामनाएं पूर्ति में सजग प्रयास की नेत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


अब कहाँ सामर्थ्य बिन आवरण बहें

असत्य को सत्य सा प्रतिदिन ही कहें

बौद्धिक हैं विकसित हैं मानवता गोत्री

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री


क्षद्म रूप विवशता है जग की स्वीकार्य

स्वार्थ ही प्रबल दिखावा कुशल शिरोधार्य

समाज प्रगतिशील हैं व्यक्ति बंद छतरी

अभिनय हैं करते अभिनेता-अभिनेत्री।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2025

04.31

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

आँधियाँ

आँधियाँ


प्रतिदिन दुख-सुख की आंधियां हैं

व्यक्ति तैरता समय की कश्तियाँ हैं

रहा बटोर अपने पल को निरंतर ही

कहीं प्रशंसा तो कहीं फब्तियां हैं


अर्चनाएं टिमटिमाती जुगनुओं सी

कामनाओं की भी तो उपलब्धियां हैं

हौसला से फैसला को फलसफा बना

दार्शनिकों सी उभरतीं सूक्तियाँ हैं


जूझ रहा हवाओं से लौ की तरह

पराजय में ऊर्जा की नियुक्तियां हैं

अपना जीवन रंग रहा बहुरंग सा

रंगहीन हाथ लिए कूंचियाँ है


अर्थ कभी सम्बन्ध तो मिली उपलब्धि

जिंदगी बिखरी इनके दरमियाँ हैं

वही नयन आज भी उदास से हैं

सख्ती बढ़ रही अब कहाँ नर्मियाँ हैं।


धीरेन्द्र सिंह

05.10.2025

16.39



शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

तख्तियां

अपनी अभिव्यक्तियों की आसक्तियां हैं

कैसे रोकें कि कई नियुक्तियां हैं

हृदय में किसने कहा है रिक्तियां

अनेक लिए आग्रह तख़्तियाँ है


कई विकल्प लुभाने को हैं आतुर

वश में कर लिए उनके दरमियाँ हैं

कहीं तो ठंढी सांसे ढूंढें सरगम

चलन चहक उठा बढ़ी गर्मियां है


कई चिल्ला रहे बढ़ता हुआ शोर है

जो हैं समर्थ उनकी मनमर्जियाँ है

अलाव हथेलिगों में लेकर चल पड़े

पड़नेवाली गजब की जो सर्दियां है।


धीरेन्द्र सिंह

03.10.2025

14.41



गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

चाहत

चाहता कौन है पता किसको 
धड़कनें सबकी गुनगुनाती हैं
चेहरे सौम्य शांत प्रदर्शित होते
मन के भीतर चलती आंधी है

एक ठहरे हुए तालाब सा स्थिर
जिंदगी तलहटों में कुनकुनाती है
तट पर हलचल की अभिलाषी
लहरें उमड़ने की तो आदी हैं

स्वभाव विपरीत जीना है यातना
जिंदगी यूँ तो सबकी गाती है
निभाव खुद से खुद करे जो
चाहतें वहीं महकती मदमाती हैं।

धीरेन्द्र सिंह
03.10.2025
07.35