रविवार, 1 जून 2025

चश्मा

 तुम भी मुझे उतार दी चश्मा की तरह

लेन्स कमजोर लग रहा था हर शहर


कहा कि साफ कर लो धूल है बहुत

नई चाह में बीमार सा घूमे दर बदर


मारा कुछ छींटे धूल लेंस से तो हटे

गर्दन घुमा लिया तुमने जैसे हो डगर


हर तन कमजोर हो अक्सर नहीं होता

मन भटक चला था बिना अगर-मगर


क्या कर लिया हासिल कुछ तो न दिखे

बवंडर से जा जुड़े उड़ान के कुछ पहर


लिख रहा हूँ तुमको याद जो आ गयी

चश्मा के लेंस संग झांकती वही नजर।


धीरेन्द्र सिंह

02.06.2025

09.55



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