आप छूती हैं गुदगुदाती हैं
एक हवा सी गुजर जाती है
लाख कोशिशें समझ न पाईं
आप क्या-क्या बुदबुदाती हैं
एक झोंका सुगंधित छू भागा
ऐसी शरारत कुहुक जाती है
मन जाता बहक अक्सर ही
कविता मेरी यूं सुगबुगाती है
पंखुड़ियां सजी मेरी हथेलियां
तलवे आपके खिल सहलाती हैं
यूं लगे गुजर रही हैं बदलियां
गजब हैं आप चुप खिलखिलाती हैं
मेरी अनुभूतियां हो रहीं गर्वित
आपकीं रीतियां बलखाती हैं
एक लौ राह में जलाइए तो
आलोकित हो आमादा बाती है।
धीरेन्द्र सिंह
11.05.20२5
09.09
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