बुधवार, 29 जनवरी 2025

अग्नि

 रात यादों में सो ही जाती है

जिंदगी अक्सर खो जाती है

अलाव दिल के रहते जलते

ठिठुरन फिर भी सताती है


कर्म की अंगीठी पर कामनाएं 

धर्म की अनबुझी कल्पनाएं

चाहतें उभरती जगमगाती है

अपने भीतर ही अपनी थाती है


चले कुछ दूर बदल दी राहें

व्योम की कल्पना पसरी बाहें

निकटता घनिष्ठता अविनाशी है

जीवंतता भोर हर जिज्ञासी है


कहां से कब तलक क्या मतलब

राह तकती है कदमों का अदब

शून्य में शौर्य जलती बाती है

अग्नि जिस रूप में हो साथी है।


धीरेन्द्र सिंह

29.01.2025

19.28



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