जितना छपता है
क्या उतना
पढ़ा जाता है ?
लेखन और पाठक
हैं इतना-उतना,
जोड़ पाता है ?
अब लोग पढ़ते नहीं
देखते हैं
घटित सभी घटनाएं,
शब्द झूठ बोलते लगें
लोग दृश्य को अपनाएं,
छूट रहे हैं शब्द
दृश्य ही अच्छा लगे
जग जैसे निःशब्द;
शब्दों का सन्नाटा ?
है गलत शोध
शोर कर रहे शब्द
ज्यों धमाका बोध,
शाब्दिक प्रत्याशा
थी ऐसी न भाषा,
किसको दें दोष
है सभी में जोश,
चेतना स्तब्ध
जग जैसे निःशब्द;
क्या है धमाका बोध ?
क्या शब्द का यह शोध ?
क्या है यह प्रतिरोध ?
किसका ?
भाषा का, संस्कृति का
एक सोच या प्रारब्ध
हलचलें आबद्ध
कोई नहीं निःशब्द।
धीरेन्द्र सिंह
01.10.2024
20.47, पुणे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें