तुम्हें जो सजा दूँ शब्दों से तुम्हारे
महकने लगेंगे वह सारे किनारे
जहां कामनाओं का उपवन सजा
प्रार्थना थी करती सांझ सकारे
एक संभावना हो दबाई कहीं तुम
कई भावनाएं मधुर तुम्हें हैं पुकारे
तुम्हें खोलने को खिल गईं कलियां
सूरज भी उगता है द्वार तुम्हारे
उठा लेखनी रच दो रचना नई
अभिव्यक्तियां भाव हरदम पुकारे
कल्पनाएं सजी ढलने को उत्सुक
प्रीति रीति साहित्य कुहूक उबारे।
धीरेन्द्र सिंह
20.08.2024
21.00
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