मेरी आवारगी को हवा देती हैं
एक नौका को यूं वह खेती हैं
भावनाएं ही कल्पना की कृतियाँ
आप से ही जाना अर्चना रीतियाँ
आप तट लहर हर प्रहर संवेदी हैं
एक नौका को यूं वह खेती हैं
शब्द मिलते भाव की ले गिलौरी
चाह प्रत्यक्ष मिले यह कहां जरूरी
सुगंध भी कहाँ दर्शन देती है
एक नौका को यूं वह खेती है
आपकी भावनाओं के चलते चप्पू
आपकी अर्चना के हम हैं साधू
धूनी जलती है मन जगा देती है
एक नौका को यूं वह खेती है।
धीरेन्द्र सिंह
15.07.2024
05.00
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