उलीचता मन तो सद्भाव, दुर्भाव है
इसी क्रम में जिंदगी का निभाव है
आप एक प्रश्न हैं असुलझी सी कहीं
सुलह हो जाए यह काल्पनिक दबाव है
कहां सहज है किसी मिलन का होना
जीव अनुभूतियों का अनगढ़ स्वभाव है
प्रत्यक्ष हो या कि हो ऑनलाइन वह
प्रत्येक संपर्क का विगत का प्रभाव है
मानवता क्रमशः खिसके जता मजबूरी
दूरी जहां वहां मिलता हृदय गांव है
जीवन है खेना या तिलतिलकर खोना
लोग क्या कहेंगे सोच दौड़ता पांव है।
धीरेन्द्र सिंह
22.06.2024
15.16
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