एकल प्रणय प्रचुर अति रागी
खुद से खुदका गति अनुरागी
तन की दहकती हैं खुदगर्जियाँ
मन में आंधियों सी हैं मर्जियाँ
समय की धूनी पल क्या पागी
खुद से खुदका गति अनुरागी
काया कब कविता सी रचि जाए
अनुभूतियों में बिहँसि धंसि जाए
आंचल को गहि सिमटी हिय आंधी
खुद से खुदका गति अनुरागी
प्रश्रय प्रीत मिले तो प्रणय प्रयोज्य
आश्रय ढीठ खिले लो तन्मय सुयोग्य
उठ बैठा संग साड़ी जैसे प्रखर वादी
खुद से खुदका गति अनुरागी।
धीरेन्द्र सिंह
11.06.2024
17.43
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