आप अब झूमकर आती नहीं हैं
मौसम संग ढल गाती नही हैं
योजनाएं घर की लिपट गईं है
उन्मुक्त होकर बतियाती नहीं हैं
यहां यह आशय प्रणय ही नहीं
पर जगह बतलाएं प्रणय नहीं है
सैद्धांतिक, सामाजिक बंधन है
ढूंढा तो लगा आप कहीं नहीं हैं
हो गया है प्यार इसे पाप समझेंगी
सोशल मीडिया क्या पुण्यात्मा नही है
यह सोच भी मोच से लगे ग्रसित
प्यारयुक्त क्या मुग्ध आत्मा नहीं है
दूरियां भौगोलिक हैं मन की नहीं
क्या मन की भरपाई नहीं है
कविता है एक प्रयास ही तो है
क्या कोई ऐसी चतुराई नहीं है।
धीरेन्द्र सिंह
28.04.2024
11.04
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