मन के बरसाने में
संशय के आंगन में क्या भरमाने में
एक बार भींगो तो मन के बरसाने में
तर्क कसौटी तो लगती दायित्व चुकौती
कर्म ताप पर लगता सुलझे कई चुनौती
जीवन कैसा बीते परिवेश झपलाने में
एक बार भींगो तो मन के बरसाने में
चाह चपोत कर रखी संस्कार अलमारी में
आह तरस कर छिटके व्यवहार चिंगारी में
दो मुखा जीवन चलता राह जमाने में
एक बार भींगो तो मन के बरसाने में
नियति, भाग्य, प्रारब्ध चालित स्तब्ध हैं
कर्म, धर्म, सत्कर्म संचयी निःशब्द हैं
कितनी ऊर्जा खर्च खुद को भरमाने में
एक बार भींगो तो मन के बरसाने में
एक आत्म हो एक तथ्य एकल व्यक्तित्व
निजता निर्वाण के सकल एक कृतित्व
अपना अस्तित्व व्यस्त अपने को तरसाने में
एक बार भींगो तो मन के बरसाने में
अब भींगे जब भींगे सब मर्यादित था
आत्मचेतना अलसायी सब आयातित था
खुद को खुद में ढालो निज तराने में
एक बार भींगो तो मन के बरसाने में।
धीरेन्द्र सिंह
30.03.2023
03.43
सुंदर सृजन
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