डाली सी तुम
लचकती डालियों में पुष्प बहार है
कब कही डाली बहुत ही भार है
प्रकृति सौंदर्य का एक प्रतिमान है
सुगंध, रंग का एक अभिमान है
डालियाँ झोंका हवा शुमार है
कब कही डाली बहुत ही भार है
छोड़ जाती हैं लदी सारी पत्तियां
पुष्प झर जाते समेटे आसक्तियाँ
लचक डाली भी लगे खुमार है
कब कही डाली बहुत ही भार है
सावन में सज जाते कई झूले
बूंदें भी लटकती तन छू ले
भीगी डाली में हौसले बेशुमार है
कब कही डाली बहुत ही भार है
डाली सी तुम जैसी सबका अधिकरण
संभालो भी तो कैसे यह पर्यावरण
कहीं सूखा कहीं कटारी वार है
कब कही डाली बहुत ही भार है।
धीरेंद्र सिंह
26.04.2023
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